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प्रान्बाट-इतिहास:
[तृतीय
के साथ हुआ था । अन्य पुत्रियाँ मरुदेवी, संतोषा, यशोमती, विनयश्री थीं। ये सर्व बहिनें असि ही गुणवती, सुशीला थीं। मरुदेवी ज्ञान-दर्शन-चारित्र को धारण करने वाली सुश्राविका थी। श्राविका सरणी ने अनुमानतः वि० सं० १४०० के आस-पास एक दिन गुरुवचन श्रवण करके अपने पुत्र विमलचन्द्र, देवचन्द्र, यशश्चन्द्र की संमति लेकर तथा अपनी बहिन संतोषा की इच्छा को मान्य कर के 'उच्चराध्ययनसूत्र' नामक ग्रंथ की टीका की पुस्तक लिखवाई । श्रा० सरणी के तीनों पुत्रों ने इस कार्य में भूरि २ आर्थिक सहायता की थी। श्राविका वीझी और उसके भ्राता श्रेष्ठि जसा और ड्रङ्गर
वि० सं० १४१८
चीबाग्राम में प्राग्वाटज्ञाति में सहदेव नाम का एक सुश्रावक हो गया है। वह कच्छोलिकामण्डनश्रीपार्श्वनाथ का परमोपासक था। उसके गुणचन्द्र नामक पुत्र था । गुणचन्द्र का पुत्र श्रीवत्स हुआ। श्रीवत्सके छाहड़, यशोभट्ट और श्रीकुमार नाम के तीन पुत्र हुये थे। श्रे• छाहड़ के परिवार के गुरु श्रीमाणिक्यप्रभरि हुये तत्पश्चात् श्री कमलसिंहसरि हुये । श्रे० यशोभट्ट के परिवार के गुरु श्री प्रभसरि और प्रज्ञातिलकसरि थे । श्रीकुमार ने श्रीमद् कमलसिंहसरिजी की उत्तम पदस्थापना (सूरिपदोत्सव) अपने वृद्ध ग्राम में करवाई थी।
श्रीकुमार की स्त्री का नाम अभयश्री था । अभयश्री के साल्हाक और बोड़का नाम के दो पुत्र हुये थे। श्रे० सान्हाक के सोभा, सोला और गदा नाम के तीन पुत्र हुये । श्रे० गदा के रत्नादेवी और श्रियादेवी दो स्त्रियाँ थीं। माश्रियादेवी के कर्मा और भीमा दो पत्ररत्न हुये। श्रे० भीमा की रुक्मिणी नामा स्त्री से लींबा. सीहर और पेथा नाम के तीन नरवीर उत्पन्न हुये । श्रे० लींवा का विवाह गउरी नामा गुणवती कन्या से हुआ था। श्रा० गउरी के जसा और ड्रङ्गर दो पुत्र थे और वीझिका, तीन्हिका और श्रीनामा तीन पुत्रियाँ थीं। श्रे० लींबा श्री कच्छूलिका (कछोली) पार्श्वनाथ मन्दिर का गोष्ठिक था। श्रा० वीझिका ने स्ववंशगुरु श्रीमद् रत्नप्रभसरि के द्वारा श्री 'उपदेशमाला' पुस्तक का व्याख्यान अपने ज्येष्ठ भ्राता जसा की अनुमति से करवाया ।
वि० सं० १४१८ कार्तिक कृ० दशमी (१०) गुरुवार को श्रे० जसा, डुङ्गर और उनकी भगिनियाँ वीझी और तीन्ही की सहायता से श्री नरचन्द्रसरि के शिष्य श्री रत्नप्रभसरि के बंधु पंडित गुणभद्र ने श्री प्रभसरिविरचित 'धर्मविधिप्रकरण' जिसकी वृत्ति श्री उदयसिंहमरि ने लिखी थी सवृत्ति लिखवाया ।
वंश-वृक्ष
सहदेव
गुणचन्द्र
श्रीवत्स