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________________ खण्ड ] श्री साहित्यक्षेत्र में हुये महाप्रभावक विद्वान् एवं महाकविगण-कवीश्वर ऋषभदास :: [३७७ उन्नति देखकर वीशलनगर छोड़ कर वहाँ जा बसे । दृढ़ एवं शुद्ध बारहव्रतधारी श्रावक होने के कारण ये तुरन्त ही खंभात के प्रसिद्ध पुरुषों में गिने जाने लगे। ये प्रसिद्ध हीरविजयसूरि के अनुयायी थे। ये नित्य सामायिक, प्रतिक्रमण, पूजा, पौषध करते और ऐसे ही आत्मोन्नति करने वाले परोपकारी कार्य करते तथा दान, शील, तप, सद्भावनाओं में तल्लीन रहते और मृषावाद से अति दूर रहते । पिता के सदृश ये शुद्ध व्यवहारी जीवन व्यतीत करते थे । अपनी स्थिति से इनको परम संतोष था। महाकवि ऋषभदास ऐसे पिता के पुत्र और ऐसे ही, अथवा इनसे भी अधिक सर्वगुणसम्पन्न पितामह के पौत्र थे । इस प्रकार महाकवि ऋषभदास का जन्म, पोषण, शिक्षण समृद्ध एवं दृढ़ धर्मी कुल में, उत्तम धर्म में महाकवि ऋषभदास और प्रसिद्धपुर में, उन्नतकाल में और गौरवशाली, तेजस्वी गुरु-छाया में हुआ-यह जैनसाहित्य उनकी दिनचर्या के सद्भाग्य का लक्षण था । हीरविजयमूरि के पट्टधर शिष्य विजयसेनसूरि के पास में इन्होंने शिक्षण प्राप्त किया था । यद्यपि ये प्राकृत एवं संस्कृत के उद्भट विद्वान् नहीं थे; फिर भी दोनों भाषाओं का इनको संतोषजनक ज्ञान अवश्य था । गूर्जरभाषा पर तो इनका पूरा २ अधिकार था। सरस्वती और गुरु के ये परमभक्त थे । अपने पूर्वजों के सदृश ये भी परम संतोषी, सद्भावी बारहव्रतधारी श्रावक थे। इन्होंने अपनी दिनचर्या अपनी कलम से लिखी है । नित्य शक्ति के अनुसार ये धर्मराधना करते, प्रातः जल्दी उठते, भगवान् महावीर का नाम स्मरण करते, शास्त्राभ्यास करते, सम्यक्त्वव्रत का पालन करते, सामायिक-प्रतिक्रमण, पौषध, पूजा करते और द्वयशन (बे आसणु) करते । नित्य दश जिनालयों के दर्शन करने जाते और अक्षत-नैवेद्य चढ़ाते । अष्ठमी को पौषध करते, दिन में सञ्झाय करते, गुरुदेशना श्रवण करने जाते, कभी मृषावाद नहीं करते, दान, शील, तप, सद्भावना में लीन रहते, बावीस अभक्ष्य पदार्थों के सेवन से दूर रहते तथा हरी वनस्पति का सेवन प्रायः बहुत कम करते । इस प्रकार ये शुद्ध श्रावकाचार का विशुद्ध परिपालन करते हुये साहित्य की भी महान् सेवा करनेवाले जैन-जगत में एक ही श्रावक हो गये हैं। ____ इन्होंने उत्तम रासों की रचना की हैं । इनकी रास-रचना सूर और तुलसी का स्मरण करा देती है। रासों की रचना सरल एवं मधुर भाषा में है । रासों की धारावाही गति कवि के महान् अनुभव एवं भाषाधिकार को ऋषभदास की कवित्वशक्ति प्रकट करती है। इन्होंने चौंतीस ३४ रासों की रचना की । रासों की सूची रचनाऔर रचनायें __सम्वत्-क्रम से इस प्रकार है । गाथा रचना-संवत् १-व्रतविचाररास ८६२ १६६६ का० १५ (दीपावली) २-श्री नेमिनाथनवरस १६६७ पौष शु०२ रास 'संघवी सांगणनो सुत वारु, धर्म आराधतो शक्तिज सारु | ऋषभ 'कवि' तस नाम कहाये, प्रह उठी गुण वीरना गावे ॥ समज्यो शास्त्रतणा ज विचारो, समकितशुवत पालतो बारो। प्रह उठि पडिकमणु करतो, बेत्रासणु' बत ते अंग धरतो॥ च उदे नियम संभारी संक्षेप,वीर-वचन-रसे अंग मुझ ले । नित्य दश देरी जिन तणा जुहारु, अक्षत मूकि नित पातम तारु॥ आठम पाखी पोषधमाहि, दिवस अति सम्झाय करू त्याहि । वीर-वचन सुणी मनमा भेटु, प्रायें वनस्पति नवि चुटुं॥ मृषा श्रदत्त प्राय नहिं पाप, शील पाल' मन वच काय आप । पाप परिग्रह न मिल महि, दिशितणु मान धरु' मनमाहि॥ अभक्ष्य बावीश ने कर्मादान, प्रायें न जाये त्या मुझ ध्यान ।' -हितशिक्षामास
SR No.007259
Book TitlePragvat Itihas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherPragvat Itihas Prakashak Samiti
Publication Year1953
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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