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________________ खण्ड ] :: श्री जैन श्रमणसंघ में हुये महाप्रभावक आचार्य और साधु-कडुअामतीगच्छीय श्री खीमाजी :: [३७३ श्रवण करके श्रे० वेलजी ने अपने प्यारे पुत्र को सुखी करने की दृष्टि से गुरु महाराज साहब को अर्पित कर दिया। बालक मेघराज अत्यन्त ही कुशाग्रबुद्धि था। दो वर्ष के अल्प समय में उसने सराहनीय अभ्यास कर लिया । श्रीमद् विनयप्रभसूरि मेघराज की प्रतिभा देखकर अति प्रसन्न हुये और वि० सं० १७१६ में उसको आठ वर्ष की वय में ही भगवतीदीक्षा प्रदान कर दी और मेघरत्न नाम रक्खा । बालमुनि विद्याभ्यास और दीक्षा मेघरत्न ने गुरु की सेवा में रह कर हैमपाणिनी-महाभाष्य आदि व्याकरण-ग्रन्थों का अध्ययन किया और तत्पश्चात् बुरहानपुर में भट्टाचार्य की निश्रा में चिन्तामणि-शिरोमणि आदि न्याय-ग्रन्थों का, ज्योतिषग्रंथ सिद्धान्तशिरोमणि, यंत्रराज आदि का, गणित, जैनकाव्य आदि अनेक विषयक ग्रन्थों का परिपक्क अभ्यास किया और बीस वर्ष की वय तक तो आप महाधुरन्धर ज्योतिषपण्डित और शास्त्रों के ज्ञाता हो गये । वि० सं० १७३१ में श्रीमद् विनयप्रभसूरि का स्वर्गवास हो गया और आप श्री को उसी वर्ष फाल्गुण मास में सूरिपद से सुशोभित करके उनके पाट पर आरूढ़ किया गया और महिमाप्रभसूरि आपका नाम रक्खा । उक्त पाटोत्सव श्रे० श्री लाधा सूरजी ने बहुत द्रव्य व्यय करके किया था। आप सरिपद की प्राप्ति अपने समय के जैनाचार्यों में प्रखर विद्वान् एवं महातेजस्वी आचार्य थे । आपके पाण्डित्य एवं तेज से जैन और जैनेतर दोनों अत्यन्त प्रभावित थे। आपने अनेक प्रतिष्ठायें करवाई । अनेक प्रकार के तपोत्सव करवाये। श्रे० वत्सराज के पुत्र चन्द्रमाण विजयसिंह के सहित दोसी उत्तम ने आपश्री के कर-कमलों से प्रतिष्ठोत्सव करवाया। आपने अनेक ग्रन्थों को लिखवाया आपश्री के कार्य और और साहित्य-भण्डार की अमूल्य वृद्धि की । आपने अनेक तीर्थयात्रायें की। अनेक स्वर्गवास श्रावक किये । पत्तनवासी लीलाधर आदि तीन भ्राताओं ने आपश्री के सदुपदेश से सातों क्षेत्रों में पुष्कल द्रव्य व्यय किया । इस प्रकार आपश्री ने जैनशासन की भारी शोभा बढाई। वि० सं० १७७२ के मार्गमास के प्रारम्भ में आपश्री बीमार पड़े और थोड़े दिनों का कष्ट सहन करके मार्ग कृ० नवमीं को स्वर्ग सिधार गये ।१ श्री कडुआमतीगच्छीय श्री खीमाजी दीक्षा वि० सं० १५२४ के लगभग. स्वर्गवास वि० सं० १५७१. मरुधरदेशान्तर्गत नडूलाई नगर के निवासी नागरज्ञातीय श्रेष्ठि काहनजी की स्त्री कनकादेवी की कुक्षि से२ वि० सं० १४६५ में उत्पन्न कडुबा नामक पुत्र ने आगमिकगच्छ में साधु-दीक्षा ग्रहण की थी। शुद्धाचारी साधुओं का प्रभाव देखकर कडुआ मुनि ने वि० सं० १५६२ में अपना अलग गच्छ स्थापित किया, जिसका जै० गु० क० भा० ३ खं० २ पृ० १४२५ और २२४१ । २२२३२
SR No.007259
Book TitlePragvat Itihas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherPragvat Itihas Prakashak Samiti
Publication Year1953
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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