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खण्ड] : श्री जैन श्रमणसंघ में हुये महाप्रभावक आचार्य और साधु-तपागच्छीय श्रीमद् कर्पूरविजयगणि:
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आपको वि० सं० १७६६ में आचार्यपद प्रदान किया। श्रे० हरराज खीमकरण ने सरिपदोत्सव बहु द्रव्य व्यय करके किया था । वि० सं० १७७० में जब विजयमानसूरि का स्वर्गवास हो गया, तो साणंद में महता देवचन्द्र और महता मदनपाल ने पाटोत्सव करके आपको विजयमानसूरि के पाट पर विराजमान किया। वि० सं० १८०६ में सूरत में आप स्वर्ग सिधारे । आपके दो पट्टधर हुये-१. सौभाग्यसूरि और २. प्रतापसरि ।
तपागच्छीय श्रीमद् कपूरविजयगणि दीक्षा वि० सं० १७२०. स्वर्गवास वि० सं० १७७५
गूर्जरभूमि की राजधानी अणहिलपुरपत्तन के सामीप्य में आये हुये वागरोड़ नामक ग्राम में प्राग्वाटज्ञातीय' सुश्रावक श्रे० भीमजीशाह रहते थे। उनकी स्त्री का नाम वीरादेवी था। वीरादेवी की कुक्षि से कहानजी नाम वंश-परिचय, जन्म और का एक पुत्र वि० सं० १७०६ के लगभग हुआ। कहानजी छोटे ही थे कि उनके माता-पिता का स्वर्गवास माता-पिता का स्वर्गवास हो गया । भीमजीशाह की एक बहिन का विवाह पचन में हुआ था । छोटे कहानजी को उनके फूफा पत्तन में ले गये।
एक समय पं० सत्यविजयजी परान में पधारे । उस समय कहानजी चौदह वर्ष के हो गये थे। पन्यासजी महाराज की वैराग्यपूर्ण देशना श्रवण कर कहानजी को वैराग्य उत्पन्न हो गया। फूफा आदि संबंधियों के बहुत गुरु का समागम, दीक्षा समझाने पर भी वे नहीं माने । अंत में वि० सं० १७२० मार्ग मास के शुक्ल पक्ष में
और पण्डितपद की प्राप्ति पन्यासजी महाराज ने कहानजी को दीक्षा दी और कपूरविजय नाम रक्खा। कपूरविजयमुनि ने शास्त्राभ्यास करके थोड़े वर्षों में ही अच्छी योग्यता प्राप्त कर ली। योग्य समझकर श्रीमद् विजयप्रभसूरि ने आपको आणंदपुर में पण्डितपद प्रदान किया। ___ गुरु की आज्ञा से आप अलग विहार करके धर्म का प्रचार करने लगे । आपके दो शिष्य थे-वृद्धिविजयगणि
और चमाविजय पन्यास । आपका विहार-क्षेत्र प्रमुखतः गूर्जरप्रदेश, सौराष्ट्र और मारवाड़ रहा । वढीआर, विहार-क्षेत्र और स्वर्गवास
... राजनगर (अहमदाबाद), राधनपुर, साचोर, सादरा, सोजिंत्रा और बड़नगर शहरों में
आपके अधिक श्रद्धालु भक्त थे। वि० सं० १७५६ के पौष शु. १२ शनिश्चर को उपाध्याय सत्यविजयजी का पत्तन में स्वर्गवास हो गया। आपको स्वर्गस्थ उपाध्यायजी के पट्टधर स्थापित किया गया।
लगभग १६ वर्ष पर्यन्त जैन शासन की मूरिपन से सेवा करके वि० सं० १७७५ श्रावण कृ० १४ सोमवार को अनशनव्रत ग्रहण कर पत्तन नगर में आप स्वर्ग सिधारे ।
जै० ए० रासमाला पृ० ३७-३६ (श्रीमद् सत्यविजयगणि)
" " , ४५-४६ (कपूरविजयगणि) , , , ११८-१२५ (करविजयगणिनिर्वाणरास)