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खण्ड ]
:: श्री जैन श्रमण संघ में हुये महाप्रभावक श्राचार्य और साधु-तपागच्छीय श्रीमद् सोमसुन्दरसूरि :: [ ३२६
संग्राम सोनी ने गुरु महाराज से भगवतीसूत्र का वाचन करवाया था और प्रत्येक शब्द पर एक-एक सुवर्ण मुद्रा चढ़ाई थी । संग्राम सोनी ने ३६००० सुवर्ण मुद्रायें, उसकी माताश्री ने १८००० तथा उसकी स्त्री ने ६००० कुल ६३००० सुवर्ण मुद्रायें चढ़ाई थीं। तत्पश्चात् उक्त मुद्राओं में और मुद्रायें सम्मिलित करके कुल १४५००० सुवर्ण मुद्रायें वि० सं० १४७१ में कल्पसूत्र और कालिकाचार्य की कथा की प्रतियाँ सचित्र और सुवर्ण के अक्षरों से लिखवाने में व्यय की गई थीं और उक्त प्रतियाँ साधुओं को वाचनार्थ अर्पित की गई थीं । संग्राम सोनी ने श्री मक्षीजी में श्रीपार्श्वनाथ - जिनालय का निर्माण करवाया था और उसमें श्री पार्श्वनाथचिंब की महामहोत्सव पूर्वक गुरु के कर-कमलों से स्थापना करवाई थी । गिरनारतीर्थ पर भी श्रे० संग्राम ने एक विशाल जिनालय बनवाया था, जो 'संग्राम सोनी' की टँक कहा जाता है । इसकी प्रतिष्ठा भी आपश्री के सदुपदेश से ही संग्राम सोनी ने महामहोत्सव पूर्वक करवाई थी ।
का करना
गच्छाधिराज श्रीमद् सोमसुन्दरसूरि विहार करते हुए ईडर (इलादुर्ग) में अपनी साधुमण्डली एवं शिष्यवर्ग सहित पधारे । उस समय ईडर का महाराजा रणमल्ल था, जो अत्यन्त प्रतापी और शूरवीर था । रणमल्ल का पुत्र श्रे० गोविंद का श्री गच्छ- श्रीपुंज भी वैसा ही महापराक्रमी और रणकुशल योद्धा था । उसने अनेक बार संग्राम पति की निश्रा में आचार्यमें जय प्राप्त की थी और वह 'वीराधिवीर' कहलाता था। ऐसे प्रतापी पिता-पुत्र का पदोत्सव का करना और प्रीति-भाजन श्रे० गोविंद था । श्रे० गोविंद जैसा श्रीमन्त था, वैसा ही सद्गुणी, तत्पश्चात् शत्रुञ्जय, गिरधर्मात्मा और उदार सज्जन था । गोविन्द अपने विशुद्ध चरित्र के लिये समस्त जैननार, तारंगतीर्थों की संघयात्रा और अन्य धर्मकार्यो समाज में अग्रणी था । उसने पुष्कल द्रव्य व्यय करके श्री तारंगतीर्थ पर कुमारपालप्रासाद का जीर्णोद्धार करवाया था । श्रे० गोविंद का पुत्र श्रीवीर भी पिता के सदृश ही गुणी, धर्मात्मा और उदार था। नगर में युगप्रधान - समान गच्छनायक श्री सोमसुन्दरसूरि का पदार्पण पाकर दोनों पिता-पुत्र अत्यन्त हर्षित हुये और अपनी न्यायोपार्जित पुष्कल संपत्ति का सदुपयोग करने के लिये शुभ अवसर देखकर गुरु की सेवा में उपस्थित होकर दोनों पिता-पुत्र निवेदन करने लगे कि उत्तमसूरिपद की प्रतिष्ठा करवा कर उनको कृतार्थ करिये । सूरिजी महाराज ने श्रद्धा एवं भक्तिपूर्वक उनकी विनती देख कर उसको स्वीकार कर ली और श्री आचार्यपदोत्सव की तैयारियाँ होने लगी । श्रे० गोविन्द ने योग्य गुरु का समागम देखकर पुष्कल द्रव्य का उपयोग करने का निश्चय किया। उसने बहुत दूर तक कुकुमपत्रिकायें भेजीं। महामहोत्सव का समारंभ प्रारम्भ हुआ । अनेक नगर, ग्रामों से अगणित जनमेदनी एकत्रित हुई और ऐसे महासमारोह के मध्य राजा रणमल्ल की उपस्थिति में गच्छनायक श्रीमद् सोमसुन्दरसूरि ने श्री जयचन्द्रवाचक को सूरिपद से अलंकृत किया । श्रे० गोविन्द ने याचकों को भरपूर दान दिया और समस्त नगर के श्री संघ को और बाहर से आये हुये सर्व संघों को विविध व्यंजनों वाला साधर्मिक- वात्सल्य दिया । तत्पश्चात् श्रे० गोविन्द ने श्री शत्रुंजयमहातीर्थ, गिरनारतीर्थ, सोपारकतीर्थादि की विशाल संघ के सहित संघयात्रा की और श्री तारंगगिरितीर्थ पर विशाल श्री अजितनाथ - आरसप्रस्तर-बिंब की प्रतिष्ठा गच्छपति श्रीमद् सोमसुन्दरसूरि के करकमलों से वि० सं० १४७६ में करवाई । प्रतिष्ठोत्सव के समय संघ रक्षा एवं व्यवस्था की दृष्टियों से गूर्जर बादशाह अहमदशाह के और ईडरनरेश
* 'ऐतिहासिक सझाय माला' by विद्याविजयजी भा० १५० ३२ (सं० १६७३ य० जे० प्र० मा० भावनगर)