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खण्ड]
:: तीर्थ एवं मन्दिरों में प्रा० ज्ञा० सद्गृहस्थों के देवकुलिका-प्रतिमाप्रतिष्ठादिकार्य-श्री शत्रुजयतीर्थ::
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लिये सपरिवार आये थे और कई दिवस पर्यन्त वहां ठहरे थे तथा उनमें से कई एक ने उपरोक्त प्रकार से निर्माणकार्य करवाये थे।
श्रेष्ठि पंचारण ____ इसी मुख्य जिनालय की भ्रमती में दक्षिण दिशा में बनी हुई जो श्री महावीर-देवकुलिका है, उसको वि० सं० १६२० आषाढ़ शु० २ रविवार को श्री गंधारनगरनिवासी श्रे० दोसी गोइत्रा के पुत्र तेजपाल की स्त्री भोटकी के पुत्र दो० पंचारण ने स्वभ्राता दो० भीम, नना और देवराज प्रमुख स्वकुटुम्बीजनों के सहित तपा० श्रीमद् विजयदानसूरिजी और विजयहीरसूरिजी के सदुपदेश से प्रतिष्ठित करवाई थी ।*
प्राग्वाटज्ञातीयकुलभूषण श्रीमंत शाह शिवा और सोम तथा श्रेष्ठि रूपजी द्वारा शत्रुञ्जयतीर्थ पर शिवा और सोमजी की हूँक की प्रतिष्ठा
वि० सं० १६७५
विक्रम की पन्द्रहवीं शताब्दी में अहमदाबाद की जाहोजलाली अपने पूरे स्त्र को प्राप्त कर चुकी थी। वहाँ गूर्जरभूमि के अत्यधिक बड़े २ श्रीमंत शाहूकार बसते थे। जैनसमाज का विशेषतया राजसभा में अधिक संमान था, अतः अनेक धनकुबेर जैन श्रावक अहमदाबाद में रहते थे। ऐसे धनी एवं मानी जैन श्रीमंतों में प्राग्वाटज्ञातीय लघुशाखीय विश्रुत श्रे० देवराज भी रहते थे। देवराज की स्त्री रूड़ी बहिन से श्रे० गोपाल नामक पुत्र हुआ । श्रे. गोपाल की स्त्री राजूदेवी की कुक्षी से श्रे. राजा पैदा हुआ । श्रे० राजा के श्रे० साईश्रा नामक पुत्र हुआ और साईश्रा की स्त्री नाकूदेवी के श्रे. जोगी और नाथा दो पत्र उत्पन्न हुये।
श्रे. जोगी की स्त्री का नाम जसमादेवी था। जसमादेवी के सं० शिवा और सोम नामक दो पुत्र पैदा हुए। सं० सोमजी का विवाह राजलदेवी नामा गुणवती कन्या से हुआ, जिसकी कुक्षी से रत्नजी, रूपजी और खीमजी तीन पुत्र पैदा हुये । रत्नजी की स्त्री का नाम सुजाणदेवी और रूपजी की स्त्री का नाम जेठी बहिन था। सं० रत्नजी के सुन्दरदास और सखरा, सं० रूपजी के पुत्र कोड़ी, उदयवंत और पुत्री कुअरी तथा खीमजी के रविजी नामक पुत्र उत्पन्न हुये।
श्रे० साईआ का लघुपुत्र श्रे. नाथा जो श्रे. जोगी का लघुभ्राता था की स्त्री नारंगदेवी की कुक्षी से सूरजी नामक पुत्र हुआ । श्रे. सूरजी की स्त्री सुषमादेवी के इन्द्रजी नामक दत्तक पुत्र था । वे साइआ के ज्येष्ठ शिवा और सोमजी और पुत्र जोगी के दोनों पुत्र श्रे. शिवा और सोमजी अति ही धर्मिष्ठ, उदारहृदय, दानी उनके पुण्यकार्य एवं धर्मसेवी हुये । इन्होंने अनेक नवीन जिनमन्दिर बनवाये, अनेक नवीन जिनप्रतिमायें प्रतिष्ठित करवाई और ग्रन्थ लिखवाये। वि० सं० १५६२ में खरतरगच्छीय श्रीमद् जिनचन्द्रसूरि के सदुपदेश से ज्ञान भण्डार के निमित्त सिद्धान्त की प्रति लिखवाई । प्रतिष्ठाओं एवं साधर्मिकवात्सल्य आदि धर्मकृत्यों में पुष्कल द्रव्य का
*प्रा० जैले०स०भा०२ ले०४