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खण्ड ] :: न्यायोपार्जित द्रव्य से मंदिरतीर्थादि में निर्माण - जीर्णोद्धार कराने वाले प्रा०ज्ञा० सद्गृहस्थ - श्री संघमुख्य सीपा :: [ २८०
स्मरण हो आता है । इस मन्दिर की में तो अन्तर प्रतीत होता ही है; परन्तु
बनावट में और उसकी बनावट में क्षेत्रफल, विशालता, भव्यता आदि इससे दोनों की समान भाँति में अन्तर नहीं पड़ता । अन्तर केवल इतना ही कि इसमें मण्डपों की रचना नहीं है और देवकुलिकाओं के परिकोष्ठ में वैसे चार द्वार भी नहीं हैं। इसका भी सिंहद्वार पश्चिमाभिमुख हैं । इस भव्य चतुर्मुखा - मूलकुलिका का निर्माण विक्रम संवत् १६३४ में सम्पूर्ण हुआ और सं० सीपा के पुत्र आसपाल ने तपा० पट्टालंकार दिल्लीपति यवनसम्राट् अकबरशाह द्वारा प्रदत्त जगद्गुरुविरुद के धारक श्रीमद् श्री ६ श्री श्री विजय हीरसूरीश्वरजी के करकमलों से विक्रम संवत् १६४४ फाल्गुण कृष्णा १३ बुधवार को सिरोही महाराजाधिराज महाराय श्री सुरतारासिंहजी के विजयी राज्यकाल में राजसी सजध एवं अति ही धूम-धाम से इसकी प्रतिष्ठा करवाई। इस प्रतिष्ठोत्सव के समय सं० सीपा धन, परिवार और मान की दृष्टि से अधिक ही गौरवशाली था । प्रतिष्ठोत्सव में सं० सीपा ने अत्यन्त द्रव्य व्यय किया था । याचकों को विपुल द्रव्य दान में दिया था और संघ और साधुओं की भक्ति विशाल स्वामीवात्सल्यादि करके अत्यधिक की थी ।
महाराय सुरताण सिरोही के राज्यासन पर हुये महारायों में सर्वश्रेष्ठ पराक्रमी और गौरवशाली राजा थे । जगद्गुरु हीरविजयसूरि भी ख्याति और प्रतिष्ठा में अन्य जैनाचार्यों से कितने बढ़ कर हैं - यह भी किसी से सं० सीपा के सुख और अज्ञात नहीं है । सम्राट् अकबर का शासन काल था । सिरोही के समस्त मन्दिरों में गौरव पर दृष्टि यह चतुमुखा - जिनालय अधिकतम् भव्य और प्राचीन है । उपरोक्त समस्त बातें विचार करके यह सहज माना जा सकता है कि जिसका धर्मगुरु और राजा अद्वितीय हों, ऐसे महापुरुषों का कृपापात्र पुरुष भी कितना गौरवशाली हो सकता है, सहज समझा जा सकता है। चौमुखाप्रासाद सं० सीपा के महान् गौरव और कीर्त्ति का परिचय आज भी भलीविध संसार को दे रहा है। सं० सीपा को मन्दिर के लेख में भी 'श्रीसंघमुख्य' पद से अलंकृत किया गया है। समाज में भी उसका अतिशय मान था — यह इस पद से सिद्ध होता है । वसंतपुरवासी सं० सीपा जैसा ऊपर लिखा जा चुका है बहुपरिवारसम्पन्न था । सरूपदेवी नामा उसकी पतिपरायणा धर्मिष्ठा स्त्री थी। उसके आसपाल, वीरपाल और सचवीर जैसे प्रसिद्ध और धर्मसेवक तीन पुत्र थे और सं० मेहाजल, आंबा, चांपा, केशव, कृष्ण, जसवंत और देवराज जैसे होनहार उसके सात पौत्र थेइतने पुत्र, पौत्र, पुत्रवधूयें एवं भ्रातादि से समृद्ध और भरपूरे परिवार वाला, राज्य और समाज में अग्रणी तथा धर्म के क्षेत्र में अपने अतिशय द्रव्य का सदुपयोग करने वाला पुरुष सर्व प्रकार से सुखी और प्रतिष्ठावान् ही निर्वादतः माना जायगा ।
यह मन्दिर एक ऊंचे चतुष्क पर बना है । चतुष्क के मध्य में अति ऊंची त्रिमंजिली मूलदेवकुलिका बनी है । तीनों मंजिल चतुर्मुखी हैं । मूलदेवकुलिका के चारों दिशाओं में विशाल सभामण्डप बने हैं । पश्चिम, उत्तर और दक्षिण श्री चतुर्मुखा जिनालय की दिशाओं के सभामण्डपों के बीच में नैऋत्य और वायव्य दोनों कोणों में सशिखर विशाल दो-दो द्वारवती दो देवकुलिकायें बनी हैं। नैऋत्य कोण में बनी देवकुलिका की बाहरी
बनावट
१७- दक्षिणपक्ष की दे०. कु० सं० १ में धर्मनाथबिंब का लेखा'सं० नाथा सुत सं० जीवराजेन' चौ० जिनालय