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:: प्राग्वाट - इतिहास ::
[ द्वितीय
आख्यान सुना करता था । इसका जैसा मान एवं प्रभाव राज्यसभा में था, वैसा ही प्रभाव बाहिर भी था । गिरनार - तीर्थ की यात्रा करके जब सम्राट् कुमारपाल लौटा और एक दिन राज्य सभा में गिरनारपर्वत के ऊपर सीढ़ियां बनवाने का उसने प्रस्ताव रक्खा, उस समय इसने एक पद्य रचकर महामात्य उदयन मन्त्री के पुत्र सेनापति आम्र की प्रशंसा में कहा । आम्र ने तुरन्त गिरनारतीर्थ पर सीढ़ियाँ बनवाने का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया । यह घटना इसके प्रभाव और धर्म-प्रेम को प्रकट करती है तथा इसके गौरव को बढ़ाती है ।
सोमप्रभाचार्य का वर्णन पूर्व दिया जा चुका है । इन्होंने 'सुमतिनाथचरित्र' और प्रसिद्ध ग्रन्थ 'कुमारपाल - प्रतिबोध' सिद्धपाल की पौषधशाला में रहकर लिखे थे । इस द्वितीय ग्रंथ की रचना वि० सं० १२४१ में पूर्ण हुई थी । इससे सिद्ध होता है कि वह श्रीमंत था, विद्वानों का आदर करने वाला था और आप सिद्धपाल और सोमप्रभाचार्य स्वयं महाविद्वान् था |
इसमें एक अद्भुत गुण यह था कि वह दूसरों की उन्नति देखकर सदा प्रसन्न होता था तथा उनको सहाय देता और उनका उत्साह बढ़ाता था । जब प्रसिद्ध विद्वान् हेमचन्द्राचार्य के सदुपदेश से गूर्जरसम्राट् कुमारपाल ने सिद्धपाल में एक अद्भुत गुण एक बहुत बड़ा सत्रागार (दानशाला) खोला और उसका कार्यभार श्रीमालकुलावतंस और उसकी कवित्वशक्ति नेमिनाग के पुत्र अभयकुमार श्रेष्ठि को समर्पित किया गया, तब अभयकुमार का न्याय, चातुर्य एवं दयालुतापूर्ण सुप्रबन्ध देखकर सिद्धपाल अत्यन्त प्रसन्न हुआ और उच्चकोटि के दो पद्य बनाकर उसकी पूरी २ प्रशंसा की । इन पद्यों से सिद्धपाल की कवित्वशक्ति का भी परिचय मिल जाता है ।
सिद्धपाल की जैसी प्रतिष्ठा गूर्जरसम्राट् कुमारपाल के समय में रही, वैसी ही उसके उत्तराधिकारी सम्राट् अजयपाल, मूलराज और द्वितीय भीमदेव के शासन समयों में अक्षुण्ण रही।
दुःख यह है कि ऐसे सद्गुणी, सद्गृहस्थ, क्षमाशील, दयालु, परोपकारी, विद्याप्रेमी, गूर्जरसम्राट् की विद्वद्मण्डली का भूषण, गूर्जरसम्राटों के प्रीतिपात्र महाकवि सिद्धपाल की प्रकीर्ण कृतियों के अतिरिक्त कोई स्वतन्त्र कृति प्राप्त नहीं है । सिद्धपाल के विजयपाल नाम का पुत्र था । वह भी महाकवि हुआ ।
'सुनस्तस्य कुमारपालनृपतिप्रीतेः पदं धीमतामुत्तंसः कविचक्रमस्तकमणिः श्रीसिद्धपाली ऽभवत् । यं० व्यालोक्य परोपकार करुणा सौजन्यसत्यक्षमा दाक्षिण्यैः कलितं कलौ कृतयुगारंभो जनैर्मन्यते ' ॥ सु
मतिनाथ चरित्र की प्रशस्ति
कुमारपाल - चरित्र
'कइयावि निव-नियुक्तो कहइ कह सिद्धपाल कई । 'जंपइ सहा - निसन्नो सुगमं पज्जं गिरिम्मि उज्जिते । को कारविंड सक्को ? तो भणि सिद्धवाले || . प्रष्ठा वाचि प्रतिष्ठा जिनगुरुचरण भोजभक्तिर्गरिष्ठा, श्रेष्ठा ऽनुष्ठाननिष्ठा विषयसुखर सास्वादसक्तिस्तवनिष्ठा । बहिष्टा त्यागलीला स्वमतपरमतालोचने यस्य काष्ठा, धीमरनाम्रः स पद्य रचयितुमचिरादुज्जयन्ते नदीष्णः ॥ देव-गुरु-ण-परो परोव यारुज्ज श्री दया-पवरो । दक्खो दक्खिन-निही सच्चो सरलास एसो ॥ क्षिप्त्वा तोयनिधिस्तले मणिगणं रत्नोत्करं रोहणो । रेखावृत्य सुवर्णमात्मनि दृढं वद्ध्वा सुवर्णाचलः ॥ दमामध्ये च धनं निधाय धनदो विभ्यत्परेभ्यः स्थितः । किं स्यात्तैः कृपणैः समो ऽयमखिलार्थिभ्यः स्वर्मथं ददत् ॥
कु० प्र०
सोमर ने वि० सं० १२४१ में 'कुमारपाल - प्रतिबोध' की रचना महाकवि सिद्धपाल की वसति में रह कर पूर्ण की थी से सिद्ध है कि महाकविक संवत् तक जीवित था ।