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खण्ड ]
:: श्री साहित्यक्षेत्र में हुये महाप्रभावक विद्वान् एवं महाकविगण - महाकवि श्रीपाल और उसके पुत्र-पौत्र [ २१६
पर ही अधिक था । राज्य सभा में होने वाली साहित्यिक चर्चाओं में, विवादों में श्रीपाल अधिकतर मध्यस्थ का कार्य करता था । वह छः भाषाओं का उद्भट विद्वान् था ।
देववोधि नामक भागवत - सम्प्रदाय का उस समय एक महाविद्वान् था । वह जैसा महान् विद्वान् था, वैसा ही महान् अभिमानी था । एक समय वह अणहिलपुरपत्तन में आया । गूर्जरसम्राट् सिद्धराज के निमन्त्रण पर भी श्रभिमानी देववोधि और उसने राजसभा में जाने से अस्वीकार कर दिया । सम्राट् सिद्धराज और महाकवि श्रीपाल महाकवि श्रीपाल दोनों महाविद्वान् देवबोधि से मिलने गये । देवबोधि ने सम्राट् का यथोचित सत्कार किया और महाकवि श्रीपाल की ओर देखकर पूछा कि यह सभा के अयोग्य अन्धा पुरुष कौन है ? इस पर सम्राट् सिद्धराज ने महिमायुक्त शब्दों में महाकवि श्रीपाल का परिचय दिया कि एक ही दिन में जिस प्रतिभाशाली ने उत्तम प्रबन्ध तैयार किया है और जो कविराज के नाम से विख्यात है वह यह श्रीपाल नामक श्रीमान् गृहस्थ है । इसने दुर्लभसरोवर या सहस्रलिङ्गसरोवर और रूद्रमहालय जैसे प्रसिद्ध स्थानों की अवर्णनीय रसयुक्त काव्यप्रशस्तियाँ की हैं । 'वैरोचन - पराजय' नामक महाप्रबन्ध का यह कर्त्ता है । सम्राट् के मुख से यह सुनकर देवबोधि शर्माया । तत्पश्चात् देवबोधि और श्रीपाल में साहित्यिक चर्चायें और समस्या पूर्त्तियें हुई । देवबोधि ने महाकवि श्रीपाल की दी हुई कठिन तपस्या की पूर्ति कर सम्राट् पर अपना प्रभाव स्थापित कर लिया । परन्तु महाकवि श्रीपाल को देवबोधि की निस्पृहता में शंका उत्पन्न हुई। दोनों में वैमनस्य बढ़ता ही गया । देवबोधि मदिरापान करता था । इसका जब पता सम्राट् और विद्वानों को मिल गया तो देवबोधि का राजसभा में प्रभाव बहुत ही कम पड़ गया । ‘सिद्धसारस्वत' नामक उसमें एक अद्भुत गुण था, जो अन्य विद्वानों में मिलना कठिन ही नहीं, असम्भव भी था । प्रसिद्ध हेमचन्द्राचार्य इसी गुण के कारण देवबोधि का बड़ा सम्मान करते थे । एक दिन हेमचन्द्राचार्य ने सुअवसर देखकर श्रीपाल महाकवि और देवबोधि में मेल करवाया । देवबोधि के हृदय पर श्रीपाल महाकवि की सरलता एवं सात्विकता का गहरा प्रभाव पड़ा और वह अपने किये पर पश्चात्ताप करने लगा ।
विक्रम की दसवीं, ग्यारहवीं एवं बारहवीं शताब्दियों में जैनधर्म की दोनों प्रसिद्ध शाखा श्वेताम्बर एवं दिगम्बर में भारी कलहपूर्ण वातावरण रहा है। बढ़ते २ वातावरण इतना कलुषित हो गया कि एक शाखा दूसरी शाखा को सर्वथा उखाड़ने का प्रयत्न करने लगी । विक्रम की बारहवीं शताब्दी के सम्राट की राज्य सभा में श्वेताम्बर और दिगम्बर अन्त में श्रीवादी देवसूरि एक श्वेताम्बराचार्य हो गये हैं। ये अनेक भाषाओं प्रखर शाखाओं में प्रचंड वाद पंडित एवं बाद में अजेय विद्वान् थे। इसी समय दिगम्बर सम्प्रदाय में श्रीमद् और श्रीपाल का उसमें कुमुदचन्द्र नाम के एक महाविद्वान् आचार्य थे । ये अधिकतर दक्षिण में विहार करते यशस्वी भाग थे । कर्णाटक का राजा इनका भक्त था । इन्होंने अनेक वादों में जय प्राप्त की थी। ये वादी चक्रबर्त्ती कहलाते थे । वि० सं० १९८० में उपरोक्त दोनों आचार्यों का चातुर्मास कर्णाटक देश की
देवबोधि - "शुक्रः कवित्वमापन्नः, एकाक्षिविकलोऽपिसत् । चतुर्द्वयविहीनस्य युक्ता ते कविराजता" ॥१॥ श्रीपाल - "कुरंग: किं भृंगो मरकतमणिः किं किमशनिः”
देवबोधि - "चिरं चित्तोद्याने चरसि च मुखाब्ज पित्रसि च क्षणा देणाक्षणा विषयविषमुद्रा हरसि च ।
नृपत्वं मानाद्विं दलयसि च किं कौतुककरः । कुरंग किं भृंगों मरकतमणिः किं किमशनि” ॥१॥