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:: प्राग्वाट-इतिहास::
[ द्वितीय
इस प्रकार वादी देवसरि अपनी समस्त आयुपर्यन्त धर्म की सेवा करते रहे । पाखंडियों का दमन किया, जिनशासन की शोभा बढ़ायी । 'स्याद्वादरत्नाकर' नामक प्रसिद्ध एवं अद्भुत ग्रंथ लिख कर जैन साहित्य का गौरव बादी देवसरि की साहित्यिक बढ़ाया । इनका स्वर्गारोहण वि० सं० १२२६ श्रावण शु० ७ गुरुवार को हुआ। जैन सेवा और स्वर्गारोहण समाज अपनी प्रतिष्ठा एवं गौरव ऐसे महाप्रभावक, युग-प्रधान आचार्यों को प्राप्त करके हो आज तक रख सका है इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं । इनका जैसा प्रभाव सम्राट् सिद्धराज की राज्य सभा में था, वैसा ही सम्राट् कुमारपाल की सभा में रहा। श्री सिद्ध-हेम-शब्दानुशासन' के कर्ता हेमचन्द्राचार्य ने कहा है कि जो देवसरि रूपी सूर्य ने कुमुदचन्द्र के प्रकाश को नहीं हरा होता तो संसार में कोई भी श्वेताम्बरसाधु कटि पर वस्त्रधारण नहीं कर सकता। इससे सहज सिद्ध है कि श्रीमद् वादी देवसूरि एक महान् विद्वान् , तार्किक, शुद्धाचारी, युगप्रभावक आचार्य थे ।*
बृहद्गच्छीय श्रीमद् आर्यरक्षितसूरिपट्टधर श्रीमद् जयसिंहसूरिपट्टनायक
श्रीमद् धर्मघोषमूरि दीक्षा वि० सं० १२२६. स्वर्गवास वि० सं० १२६८
राजस्थानान्तर्गत मरुधरप्रान्त के महावपुर नामक ग्राम में प्राग्वाटज्ञातीय श्रेष्ठि श्री चन्द्र नामक एक प्रसिद्ध जैन व्यापारी रहता था। उसकी स्त्री का नाम राजलदेवी था। राजलदेवी वस्तुतः राजुल या राजिमती के सदृश वंश-परिचय और दीक्षा- ही धर्मपरापणा स्त्री थी। राजलदेवी की कुक्षी से वि० सं० १२०८ में उत्तम लक्षणयुक्त महोत्सव
धनकुमार नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। वि० सं० १२२६ में श्रीमद् जयसिंहसूरि का महावपुर में पदार्पण हुआ। वैराग्यपूर्ण धर्मदेशना सुन पर धनकुमार ने दीक्षा लेने का संकल्प कर लिया और अपने संकल्प से अपने माता-पिता को परिचय करवाया। धनकुमार को बहुत समझाया, लेकिन उसने एक की नहीं सुनी। अंत में महामहोत्सवपूर्वक श्रीमद् जयसिंहसूरि ने सोलह वर्ष की वय में वि० सं० १२२६ में धनकुमार को दीक्षा दी और धर्मघोषमुनि उसका नाम रक्खा।
दीक्षित हो जाने पर धर्मघोषमुनि विद्याभ्यास में लग गये । चार वर्ष के अल्प समय में ही आपने प्रसिद्ध ग्रंथों का अभ्यास कर लिया और मंत्र-विद्या में अत्यन्त निपुण बन गये। आपके विद्याप्रेम, मंत्रज्ञान और
आपका शाकभारी के सामंत शात्रज्ञान को देख कर श्रीमद् जयसिंहसूरि अत्यन्त प्रसन्न हुये और वि० सं० १२३० को. जैन बनाना और में आपको उपाध्यायपद प्रदान किया। अनुक्रम से विहार करते २ वि० सं० १२३४ आचार्यपद की प्राप्ति में श्रीमद् जयसिंहसूरि शाकंभरी में पधारे। नगर में महामहोत्सवपूर्वक आपका प्रवेश हुआ। श्रीमद् उपाध्याय धर्मघोषमुनि भी आपके साथ में थे। युगप्रधान गुरुराज का नगर में आगमन श्रवण कर शाकंभरीसामंत प्रथमराज की राणी भी गुरु के दर्शनार्थ उपस्थित हुई। धर्मघोषमुनि भी वहीं उपस्थित थे।
*५० च० में देवरि-प्रबन्ध । जे० सा० सं० इति० पृ० २४७-६(३४३-५)। प्रा० जै० ले० सं० भा० २ ले० ३५२ ।