________________
खण्ड ] :: श्री जैन श्रमण-संघ में हुए महाप्रभावक आचार्य और साधु - बृहद् गच्छीय श्रीमद् श्रार्यरक्षितसूरि :: [ २०७
देदी भी पुत्रसहित भक्तिभावपूर्वक वंदना करने के लिये गये । गौदुहकुमार तुरन्त दौड़कर आचार्य महाराज के आसन पर जा बैठा । आचार्यजी ने गौदहकुमार की श्रेष्ठ द्रोण और उसकी स्त्री से मांगणी की । गुरु- वचनपालन करने में दृढ़ ऐसे दोनों स्त्री-पुरुषों ने गौदहकुमार को आचार्यजी को (वि० सं० १९४२ में) समर्पित किया । गौदहकुमार अत्यन्त कुशाग्रबुद्धि और विनीत बालक था । उसने दश वर्ष की वय तक संस्कृत, प्राकृत का अच्छा अभ्यास कर लिया था । श्रीमद् जयसिंहसूरि ने गौदहकुमार का अभ्यास, उसकी प्रखर बुद्धि और धर्मपरायणता को देख कर उसको वि० सं० १९४६ पौष शु० ३ को राधनपुर में महामहोत्सवपूर्वक दीक्षा प्रदान की और उसका मुनि श्रार्यरक्षित नाम रक्खा ।
दीक्षा महोत्सव के पश्चात् मुनि आर्यरक्षित ने आचार्यजी से अनेक शास्त्रों का अल्प समय में ही अभ्यास कर लिया। मंत्र-तंत्र की विद्या में पारंगत मुनि राज्यचन्द्र ने मुनि आर्यरक्षित को मन्त्र-तन्त्र की विद्यायें सिखाई शास्त्राभ्यास और आचार्यऔर उनको विनीत और सर्वगुणसम्पन्न जानकर 'परकायाप्रवेशिनी' नामक विद्या पदवी दी। इस प्रकार वि० सं० १९५६ तक श्रार्यरक्षित मुनि षट् शास्त्रों के ज्ञाता और अनेक विद्याओं में पारंगत हो गये । आचार्य महाराज ने उनको सब प्रकार योग्य समझ कर पत्तन में वि० सं० ११५६ मार्गशीर्ष शु० ३ को आचार्यपद प्रदान किया ।
1
श्रार्यरक्षितसूरि कठोर तपस्वी और आचार-विचार की दृष्टि से प्रति कठोर व्रती थे । शिथिलाचार उनको नाम मात्र भी नहीं रुचता था। वे स्वयं शुद्ध साध्वाचार का पालन करते थे और अपने साधुवर्ग में भी वैसा ही शुद्ध आचार्यपद का त्याग और साध्वाचार का परिपालन होना देखना चाहते थे । एक दिन श्राचार्य श्रार्यरक्षित ने क्रियोद्धार दशवैकालिकसूत्र की निम्न गाथा का वाचन किया:
सीओदगं न सेविज्जा । सिलावुट्ठि हिमाणि य । उसिणोदगं तह फासू । पड़िगाहिज्ज संजो ॥१॥
उपरोक्त गाथा का वाचन करके उन्होंने विचार किया कि गाथा में उबाले हुये पानी को व्यवहार में लाने का आदेश है, जहाँ हम साधु ठण्डे पानी का उपयोग करके शास्त्रीय साधु-मर्यादा का भंग कर रहे हैं। ये उठकर आचार्य जयसिंहसूरि के पास जाकर सविनय कहने लगे कि आज के साधुओं में शिथिलाचार बहुत ही बढ़ गया है । अगर आप आज्ञा दें तो मैं शुद्ध धर्म की प्ररूपणा करूँ । आचार्य महाराज यह सुनकर अत्यन्त प्रसन्न हुये और कहा कि जैसा तुमको ठीक लगे वैसा करो। बस दो माह पश्चात् ही वि० सं० १९५६ माघ शु. पंचमी को आचार्यपद का त्याग करके ये अपना नाम उपाध्याय विजयचन्द्र रखकर क्रियोद्धार करने को निकल पड़े । उपा
या विजयचन्द्र घोर तपस्या करने लगे और पैदल उग्र विहार करते हुये अपने साधु-परिवार सहित पावागढ़ आये । पावागढ़ में उनको शुद्ध आहार की प्राप्ति नहीं हुई । अतः उन्होंने सागारी अनशनतप प्रारम्भ कर दिया । एक माह व्यतीत होने पर उनको शुद्धाहार का योग प्राप्त हुआ ।
एक रात्रि को उनको स्वम हुआ, उसमें चक्रेश्वरीदेवी ने उनको कहा कि पास के भालेज नामक ग्राम में शुद्धाहार की प्राप्ति होगी उपाध्याय अपने परिवार सहित भालेज नगर में पधारे और शुद्धाहार प्राप्त करके पारणा किया। एक माह पर्यन्त सागारी अनशन तप करने के कारण वे अत्यंत दुर्बल हो गये थे; अतः कुछ दिनों तक भालेज में ही विराजे ।