SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 378
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ खण्ड] :: श्री जैन श्रमण-संघ में हुये महाप्रभावक आचर्य और साधु-सांडेरकगच्छीय श्रीमद् यशोभद्रसूरि :: [२०५ - सूरिजी ने अपना आयुष्य निकट जान कर अपने शिष्यों से कहा कि जब मैं मरूँ, मेरे शिर को फोड़तोड़ कर चूर-चूर कर डालना । अवधूत के हाथ अगर शिर पड़ जायगा तो वह बड़ा भारी पाखण्डवाद और अत्याचार फैलावेगा। निदान जब सूरिजी मरे, उनका शिर चूर २ कर दिया गया। स्वर्गवास सूरिजी का स्वर्गारोहण (वि० सं० १०१० में) श्रवण करके जब अवधूत आया तो आपका समस्त जीवन-चरित्र ही अनेक चमत्कारों का लेखा है । परन्तु मत्र और मंत्र-विद्या में विश्वास करने वालों के लिये तो उनके जीवन की कुछ चमत्कारपूर्ण घटनाओं का लिखना अत्यन्त आवश्यक है। १. संवत् ६६९ में आप सांडेराव में प्रतिष्ठा करवा रहे थे। दैवयोग से प्रीतिभोज में घी की कमी पड़ गई। सरिजी को समाचार होते ही उन्होंने मंत्र पढ़ कर घी के बर्तनों को घी से भर दिया। प्रीतिभोज पूर्ण हो गया। तत्पश्चात् सरिजी ने सांडेराव के श्री संघ को पाली में एक अजैन श्रेष्ठि को घी के दाम चुकाने का आदेश दिया। श्रीसंघ-सांडेराव के मनुष्य जब उस अजैन श्रेष्ठि के पास रकम लेकर पहुंचे तो उसने यह कह कर कि मैंने तो घी नहीं बेचा है, रकम लेने से अस्वीकार किया। रकम चुकाने वालों ने जब उसे अपने घी के बर्तन देखने को कहा तो उसने बर्तन देखे और उन्हें खाली पाया । सरिजी का यह चमत्कार देख कर वह सांडेराव श्राया और रकम लेने से उसने अस्वीकार किया और उसने जैनधर्म स्वीकार किया। इसी वर्ष आपने मुंडारा में भी प्रतिष्ठा करवाई थी। २. एक समय सरिजी श्रागटनरेश के साथ चले जा रहे थे। रास्ते में एक अवधूत ने अपने मुंह से सरिजी का स्पश किया । सरिजी ने अपने दोनों हाथों को तुरन्त ही मसल कर कुछ झाड़ने का अभिनय किया। राजा ने इस संकेत का रहस्य पूछा। सरिजी ने कहा कि उज्जैन में महाकालेश्वरमन्दिर का चन्द्रवा जलने लगा था। अवधूत ने मुझको अपने मुंह से स्पर्श करके संकेत किया । मैंने चन्द्रवा को मसल कर बुझा डाला। उन्होंने राजा को अपने दोनों हाथ दिखाये तो तलियाँ काली थी । राजा ने उज्जैन में अपने विश्वासपात्र सेवकों को उपरोक्त घटना की सत्यता की प्रतीति करने के लिये भेजा। उन्होंने लौट कर कहा कि ठीक उसी दिन, उसी समय चन्द्रवा जल उठा था और वह तुरन्त किसी अदृष्ट देव द्वारा बुझा दिया गया था। सरिजी का यह महान् चमत्कार देख कर राजा आगटनरेश अल्लट ने जैनधर्म स्वीकार किया और वह सरिजी का परम भक्त बना।। ३. सरिजीने प्रागटनगर, रहेट, कविलाण, संभरी और भैसर इन पांचों नगरों में एक ही मुहूर्त में अपने पांच शरीर बना कर प्रतिष्ठायें करवाई थी। इसी विद्या के बल से सरिजी नित्य-नियम से पंचतीर्थी करके फिर नवकारसीव्रत का पालन करते थे। आगटनगर के एक श्रेष्ठि ने सरिजी की अधिनायकता में शत्रजयमहातीर्थ के लिये संघ निकाला था। संघ अल्लहणपुपरत्तन होकर गया था। उस समय पत्तन में गूर्जरसम्राट् मूलराज राज्य करता था। सरिजी का आगमन श्रवण करके वह उनका स्वागत करने अपने सामंत और मण्डलेश्वरों के साथ नगर के बाहर आया और राजसी ठाट-बाट से उनका नगर-प्रवेश करवा कर राजप्रासाद में सूरिजी को ले गया। मूलराज ने सरिजी के अद्भुत कर्मों के विषय में खूब सुन रक्खा था । सम्राट ने सुरिजी से पत्तन में ही सदा के लिये विराजने की प्रार्थना की। परन्तु सरिजी ने उत्तर दिया कि जैनसाधुओं को एक स्थान पर रहना नहीं कल्पता है। सम्राट ने निराश हो कर एक चाल चली। उसने अवसर देख कर जिस कक्ष में सरिजी ठहरे हुये थे, उसके चारों ओर के द्वार एक दम बंद करवा दिये । सरिजी को कक्ष में बंद कर दिया है और अब सम्राट् सरिजी को नहीं आने देगा यह समाचार श्रवण कर के संघ बहुत ही अधीर हुश्रा; परन्तु सम्राट के आगे संघ का क्या चलता। निदान संघ पत्तन से रवाना हो कर शत्र'जयतीर्थ की ओर आगे चला । उधर सरिजी ने देखा कि सम्राट ने छल किया है, वे अपना सूक्ष्म शरीर बना कर किवाड़ों के छिद्र में से निकल कर संघ में जा सम्मिलित हुए। संघ सूरिजी के दर्शन करके कृतकृत्य हो गया। पत्तन की ओर आने वालों में से किसी चतुर के साथ सूरिजी ने सम्राट को धर्मलाभ कहला भेजा । सरि का धर्मलाभ पाकर सम्राट को आश्चर्य हुश्रा और जब उसने उस कक्ष के किवाड़ खोल कर देखा तो वहाँ सूरिजी नहीं थे। संघ बढ़ कर एक तालाब के किनारे पहुँचा । भोजन का समय हो चुका था। तालाब में पानी नहीं देखकर संघपति को चिंता हुई। सरिजी को यह मालूम हुआ कि सरोवर में पानी नहीं है, चट उन्होंने अपना ओघा उठाया और सरोवर की दिशा में उसे घुमाया । सरोवर पानी से छलाछल कर उठा । संघ में इस चमत्कार से अतिशय हर्ष छा गया। इस प्रकार सरिजी के पद-पद पर अनेक चमत्कारों का अनुभव करता हुआ संघ शत्रुञ्जयतीर्थ की यात्रा करके गिरनार पहुंचा। गिरनारतीर्थ पर प्रभु को संघपति ने अमूल्य रत्वजटित श्राभूषण धारण करवाये । रात्रि को वे आभूषण चोरी चले गये । संघपति को यह श्रवण करके अत्यन्त ही दुःख हुआ।
SR No.007259
Book TitlePragvat Itihas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherPragvat Itihas Prakashak Samiti
Publication Year1953
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy