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:: प्राग्वाट-इतिहास ::
[द्वितीय
श्रीशत्रुजयपर्वत पर विविध सुगन्धित पदार्थों, कपूर, चन्दन, श्रीफलों से किया गया । महामात्य के स्वर्गारोहण से समस्त गूर्जरसाम्राज्य में महाशोक छा गया। महामात्य तेजपाल तथा जैत्रसिंह ने दाहसंस्थान पर जहाँ महामात्य वस्तुपाल का अग्निसंस्कार किया गया था, स्वर्गारोहण नामक प्रासाद विनिर्मित करवाया और उसमें नमि और विनमि के साथ में श्री आदिनाथ-प्रतिमा को प्रतिष्ठित करवाया।
मंत्री भ्राताओं का अद्भुत वैभव और उनकी साहित्य एवं धर्मसंबंधी महान सेवायें
वस्तुपाल ने अपनी सफल नीति एवं चातुर्य से, तेजपाल ने रणकौशल एवं जयमाला से अथात् दोनों भ्राताओं ने अपने २ बुद्धि, बल, साहस, पराक्रम से धवलकपुर के मण्डलेश्वर राणक वीरधवल को सार्वभौम सत्ताधीश, महावैभवशाली, अजेय राजा बना दिया । धवलकपुर के राजकोष में धन की प्रचंड बाढ़ आ गई थी, सैन्य में अनंत वृद्धि एवं समृद्धि हो गई थी। इसके बदले में महामण्डलेश्वर लवणप्रसाद एवं राणक वीरधवल ने भी समय-समय पर दोनों भ्राताओं का अपार धनराशि, मौक्तिक, माणिक, गज, अश्व पारितोषिक रूप से प्रदान कर अद्भुत मान-सम्मान सहित
स्वागत किया. जिसके फलस्वरूप वस्तपाल-तेजपाल का ऐश्वर्य वणर्नातीत हो गया और ये दोनों मंत्री भ्राता
महामात्य वस्तुपाल जैसा धर्मात्मा और न्यायशील पुरुष कभी भी ऐसा कोई कार्य अकारण नहीं कर सकता। राजगुरु सोमेश्वर को महाराणक वीशलदेव ने महामात्य वस्तुपाल के पास भेजा कि वे पता लगा कि इस घटना का कारण क्या है और महामात्य वस्तुपाल को राजसभा में लावें । सोमेश्वर महामात्य के प्रासाद को पहुंचे और मन्त्री के पास उपस्थित हुए। मन्त्री को सुसज्जित देखकर और मन्त्री के मुख से आदि से अन्त तक की कहानी श्रवण कर सोमेश्वर ने कहा, 'मन्त्रीप्रवर! छोटी-सी बात को इतना बढ़ा दिया, सिंह महाराणक का मामा है, जेठवाजाति प्रतिशोध लेने के लिये तैयार हो चुकी है, सारा नगर भयत्रस्त हो चुका है। अब आप राजसभा में चलें और किसी प्रकार समझौता कर लें।' महामात्य ने सोमेश्वर से कहा, 'मित्रवर ! धर्म का अपमान मैं नहीं देख सकता । सारे सुख और वैभव भोगे । अन्तिम अवस्था है। मेरी हार्दिक इच्छा भी अब यही है कि जैसे धर्म के लिये जिया उसी प्रकार धर्म के लिए मरू' सोमेश्वर महामात्य का दृढ़ निश्चय देखकर वहाँ से विदा हुये और राजसभा में पहुँच कर महाराणक वीशलदेव को सारी स्थिति, महामात्य का दृढ़ निश्चय समझा दिया। महाराणक वीशलदेव ने सोमेश्वर से पूछा । 'गुरुदेव ! ऐसी स्थिति में क्या करना चाहिए, कुछ समझ में नही आता।' सोमेश्वर ने कहा-'वीशलदेव ! महामात्य वस्तुपाल महाधर्मात्मा, न्यायशील, सरस्वतीभक्त, उच्चकोटि का विद्वान् है और गूर्जरसाम्राज्य के ऊपर तथा आप स्वयं के उपर उसने अपार उपकार किये हैं, जिनका बदला कभी भी नहीं चुकाया जा सकता और फिर यहाँ तो मामा जेठवा का अपराध पहिले हुआ है । महामात्य को सन्मानपूर्वक राजसभा में बुलवाना चाहिए और मामा जेठवा महामात्य से अपने द्वारा किये गये धर्म का अपमान करने वाले अपराध की क्षमा मांगे और तत्पश्चात् महामात्य को सम्मानपूर्वक विदा करके घर पहुंचाना चाहिए । महामात्य एक ऐसे अमूल्य व्यक्ति हैं, जो समय पर काम देने वाले हैं।' महाराणक ने महामात्य को सम्मानपूर्वक राजसभा में लाने के लिये अपने प्रसिद्ध २ सामन्तों को भेजा । महामात्य उसी वीर-वेष में राजसभा में आये। महाराणक वीशलदेव ने उनका पिता तुल्य सम्मान किया । मामा जेठया ने अपने किये गये अपराध की चरणों में पड़कर क्षमा मांगी। महामात्य वस्तुपाल ने महाराणक वीशलदेव को शासन किस प्रकार करना चाहिए पर अनेक रीति संबंधी हितोपदेश दिया और आशीर्वचन देकर विदा लौ । महाराणक वीशलदेव ने प्रतिज्ञा ली कि आगे वह कभी भी अपने शासनकाल में जैन-साधुओं का अपमान नहीं होने देगा
और जो अपमान करेगा उसको वह कठोर दण्ड देगा। तदुपरांत महामात्य को उसके घर पर अत्यन्त सम्मान और समारोह के साथ पहुँचाया।