SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 273
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२२] . :: प्राग्वाट-इतिहास:,.. .. [द्वितीय लूटपाट बंद हो गई और यात्रीजन सुखपूर्वक यात्रायें करने लगे। इस विजययात्रा से वीरधवल की ख्याति और यश तो बढ़ा ही, परन्तु सर्वत्र गुजरात के लुटेरे, ठक्कुर एवं निरंकुश हुये सामन्तों पर मन्त्रीभ्राताओं की भी धाक बैठ गई और शान्ति स्थापना का कार्य अत्यन्त सरल हो गया या यह कह दिया जाय तो भी अतिशयोक्ति नहीं कि अतिरिक्त दो-चार सामन्तों के राज्यों के सर्वत्र गूर्जर-साम्राज्य में इस विजययात्रा के अन्त के साथ लूट-पाट और अत्याचार का एक प्रकार से अन्त हो गया । सर्वत्र उत्सव, महोत्सव होने लगे। खम्भात के शासक के रूप में महामात्य वस्तुपाल और लाट के राजा शंख के साथ वस्तुपाल का युद्ध तथा खंभात में महामात्य के अनेक सार्वजनिक सर्वहितकारी कार्य शान्ति एवं शासन-व्यवस्था स्थापित करके, वीरधवल एवं तेजपाल की सौराष्ट्र के लिये विजययात्रा का समृद्ध एवं सबल प्रबन्ध करके, मण्डलेश्वर लावण्यप्रसाद को धवलकपुर-राज्य में रहने की सम्मति देकर तथा मालवनरेश देवपाल और यादवगिरि के राजा सिंघण के निकट भविष्य में गूर्जरभूमि पर होने वाले आक्रमणों की तैयारी को विफल करने का अपने अतिकुशल एवं विश्वासपात्र गुप्तचरों को कार्य सम्भला कर, डाक का अत्यन्त सुन्दर प्रबन्ध कर महामात्य वस्तुपाल वि० सं० १२७७ (सन् १२२०) के प्रारम्भ में खम्भात का शासन सम्भालने के लिये रवाना हया। खम्भात पर राणक वीरधवल का अधिकार हये अधिक समय नहीं हया था। जब लाट का राजा शंख जिसको संग्रामसिंह और सिंधुराजभू भी कहते हैं१, यादवगिरि के राजा सिंघण से परास्त होकर यादवगिरि की कारा में बंद थां, राणक वीरधवल ने इस अवसर का लाभ उठाकर खम्भात पर आक्रमण करके उसको विजय कर लिया था। वैसे भी खम्भात सदा से गूर्जरसम्राटों के अधिकार में ही रहा है, परन्तु भीमदेव द्वि० की निर्बलता के कारण लाट के शासकों ने खम्भात पर अपना आधिपत्य जमा लिया था। महामात्य वस्तुपाल का खम्भात नगर में प्रवेश प्रजा ने बड़े धूमधाम से करवाया२ । लाट के शासकों के कुछ हिमायती अब भी खम्भात में उपस्थित थे, नौवित्तक सदीक उनमें प्रमुख था। शंख भी यादवगिरि के सिंघण की कारागार से मुक्त होकर लाट में आ चुका था। नौवित्तक सदीक अति धनी एवं ऐश्वर्यशाली था । वह शंख का उसके यहाँ नौकर, चाकर अश्वारोही भारी संख्या में रहते थे। दूर २ देशों में जहाजों द्वारा वह व्यापार १-ख्यातः संग्रामसिंहो वा शलो वा सिंधूराजभः ॥१३॥ H.M.M. app. 11 P.86. (सु० कृ० क०) २-स्तंभतीर्थ जगाम श्रीवस्तुपालो विलोकितुम् ॥३॥ की कौ० स०४ पृ० २८ की० कौ० सर्ग० ४ श्लोक १० से ४१ में पुर-प्रवेशोत्सव का वर्णन भी अच्छे रूप से दिया गया है। -But he acquired influence over the Yadava king; a treaty was signed between the two and Devpala, and Sankha was restored to his kingdom. G. G. Part III P. 214 ४-'तेन (शंखेन) माणितं मंत्रिणे मंत्रिन् ! मदीयमेकं नौवित्तक न सहसे । मदीयं मित्रमसौ ज्ञेयः। प्र० को० व० प्र०१२७) पृ०१०८-१०६
SR No.007259
Book TitlePragvat Itihas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherPragvat Itihas Prakashak Samiti
Publication Year1953
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy