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:: प्राग्वाट-इतिहास::
[द्वितीय
मुयोग्य गूर्जर-सैन्य तैयार हो गया। खम्भात की स्थिति इस समय बहुत ही खराब हो रही थी। वस्तुपाल खम्भात में शान्ति और व्यवस्था स्थापन करने के लिये तुरन्त ही रवाना हो गया । तेजपाल और महाराणक वीर धवल सौराष्ट्र-विजय को निकले। महामण्डलेश्वर लवणप्रसाद धवल्लकपुर में ही रहकर यादवगिरि के राजा सिंगण और मालवपति देवपाल की गूर्जरभूमि पर आक्रमण करने की हलचल को देखने लगे।
सौराष्ट्र के सामन्त, ठक्कुर गूर्जरसम्राट् की इस विषम परिस्थिति का लाभ उठाकर स्वतन्त्र हो गये थे और लूट-पाट करते ग्रामीण जनों को दुःख देते तथा यात्रियों को अनेक यातनायें पहुंचाते थे । बड़े २ जैन तथा वैष्णव सौराष्ट्र-विजय का उद्देश्य तीर्थ गुजरात में अधिकतर सौराष्ट्रप्रान्त में ही आये हुये हैं। शत्रुजय, गिरनार, तारंग
और अराजकता का अंत गिरि आदि । इन तीर्थों के दर्शनार्थ यात्रियों का जाना-बाना बंद-सा हो गया । धर्मिष्ठ एवं प्रजावत्सल मंत्रीभ्राताओं को यह एकदम असह्य हो उठा। सौराष्ट्र पर आक्रमण करने का एक विचार यह भी था कि सौराष्ट्र के सामन्त कितने ही धनी एवं बली क्यों नहीं हो गये हों, फिर भी गूर्जरसम्राट की सेनाओं के मागे टिकने की न ही तो उनमें शक्ति ही थी और न ही इतना साहस । भीमदेव की निर्बलता और प्रमाद के कारण इनको मनमानी करने का अवसर मिल गया था । अतः वीरधवल और मन्त्रीभ्राताओं ने सौराष्ट्रविजय को प्रथम
आवश्यक समझा और यह भी समझा कि इस विजय से धनी बने हुये सामन्त और ठक्कुरों के दमन से अनन्त धन हाथ लगेगा जो गुर्जरसैन्य के बढ़ाने और उसको सबल बनाने में बड़ा लाभदायक होगा ।
दंडनायक तेजपाल ने प्रथम सौराष्ट्र के छोटे २ ठक्कुरों को कुचलना प्रारम्भ किया और उनसे लूट का धन तथा खिरणी (खंडणी) प्राप्त करता हुआ वह वर्धमानपुर पहुँचा । वर्धमानपुर के गोहिलवंशी ठक्कुर अत्यन्त बली एवं बढ़े हुये थे। तेजपाल की शिक्षित एवं समृद्ध सैन्य के समक्ष वे नहीं टिक सके और उन्होंने भी खिरणी में अनन्त धनराशि देकर वीरधवल को अपना स्वामी स्वीकार किया । यहाँ से तेजपाल ने वामनस्थली की ओर प्रयाण किया । मार्ग में आते हुये ग्रामों के ठक्कुरों को कुचलता हुआ तथा खिरणी प्राप्त करता हुआ वह वामनस्थली के समीप पहुँचा । वीरधवल एवं तेजपाल ने प्रथम एक दूत भेजकर वामनस्थली के सामन्त सांगण और चामुण्ड को, जो वीरधवल के साले थे समझाना चाहा; परन्तु प्रयत्न निष्फल गया। वीरधवल की राणी स्वयं जयतलदेवी जो सांगण एवं चामुण्ड की सहोदरा थी, अपने भ्राताओं को समझाने के लिये गई; परन्तु उसको भी अपमानिता १-'न्यायं निवेशयन्नुा निर्व्याजः स्वजनः सताम् । स्तम्भतीर्थ जगाम श्रीवस्तुपालो विलोकितुम् ॥३॥
की कौ० सर्ग० ४ पृ० २८ 'अथ श्री वस्तुपालः शुभेमुहूर्त स्तम्भतीर्थ गतः।'
प्र० वस्तुपाल प्रबन्धः १२७ । पृ०१०८ २-'एवं कोशबलोपेतं, निर्माय नृपति निजम् । तीर्थाना स्वहं मार्ग', कर्नु कामोऽब्रवीदयम् ॥३४॥ . महाराज ! सुराष्ट्रासु, राष्ट्रषु द्विष्टचेतसः। भूभृतः सन्ति पापिष्ठा, द्रव्यकोटिमदोद्धताः ॥३५।।'
व० च० द्वि० प्रस्ताव पृ०१६ 'इत्यादि ध्यात्वा वस्त्राणि परावृत्त्य श्रीवस्तुपाल: सपरिजनो बुभुजे । गृहीतताम्बूलो राजकुलमगमत् । एवं दिनसप्तके गते, प्रथमतद्राज्यजीर्णाधिकारी एक एकविंशतिलक्षाणि बृहद्रम्माणां दण्डितः। पूर्वमधिनीतोऽभूत् । तदनु] विनयं ग्राहितः । तैर्द्रव्यैः कियदपि हयपत्तिलक्षणं सारं सैन्यं कृतम् । तेजपालेन पश्चात्सैन्य बलेन धवलकप्रतिबद्धग्रामपञ्चशतीग्रामण्यश्चिरसञ्चितं धनं हक्यैव दंडिताः, वीर्णब्यापारिणो निश्चयोतिताः । एवं मिलितं प्रभूतं खम् । ततः स्वबलसैन्यसंग्रहपटुतेजसं श्रीवीरधवलं सहेवादाय सर्वत्र देशमध्यऽभ्रमन् मन्त्री । अदण्डयत् सर्वम् । ततोऽद्भुतर्द्धिवीरधवलस्तेजःपालेन जगदे-देव ! सुराष्ट्रगष्ट्रऽत्यन्तधनिनःठक्कुरास्ते दण्ड्यन्ते । ततोऽचलदयम् ।'
प्र० को० वस्तुपालप्रबन्ध पृ०१०३