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:: मंत्री भ्राताओं का गौरवशाली गूर्जर-मंत्री-बंश और वस्तुपाल के महामात्य बनने के पूर्व गुजरात ::
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और वह भी इस अवनति के काल में महान कठिन है। रात और दिन लवणप्रसाद पोम्य मंत्रियों की शोध के विचार में ही रहने लगा । परन्तु उसको कोई योग्य मंत्री नहीं मिल रहे थे ।१...
वि० सं० १२७१-७२ के आस-पास कुमारदेवी की मृत्यु हो गई । इस समय तक वस्तुपाल तेजपाल प्रौदवय को प्राप्त हो चुके थे। वस्तुपाल की गणना गूर्जरभूमि के महान् पराक्रमी वीर योद्धाओं में और उद्भट विद्वानों में कुमारदेवी का स्वर्गारोहण होने लगी थी । तेजपाल अत्यन्त शूरवीर एवं निडर होने से बहुत ख्यातनामा हो गया
और वस्तुपाल का धवलक- था। इन दिनों में धवलक्कपुर की ख्याति महामण्डलेश्वर राणक लवणप्रसाद की वीरता पुर में वसना। एवं साहस के कारण अत्यधिक बढ़ गई थी। युवराज वीरधवल भी धवलक्कपुर में ही रहता था और वहीं रहकर अभिनव राजतंत्र की स्थापना करके गूर्जरभूमि के भाग्य का निर्माण करना चाहता था। फलतः उसके दरबार में वीर योद्धाओं का, रणविशारदों का स्वागत होता था। वह विद्वानों का भी समादर करता था । परिणाम यह हुआ कि थोड़े समय में ही धवलकपुर में अनेक वीर योद्धा और उद्भट विद्वान जमा हो गये ।
और वह अति सुरक्षित नगर माना जाने लगा। वस्तुपाल तेजपाल ने भी मण्डलिकपुर छोड़कर धवलकपुर में निवास करने का विचार किया। स्वर्गस्थ पिता-माता के श्रेयार्थ वि० सं० १२७३ में इन्होंने शत्रुञ्जय एवं गिरनार तीर्थों की यात्रा की। यात्रा को जाते समय मार्ग में ये हडाला नामक ग्राम में ठहरे। रात्रि को दोनों भाई उक्त ग्राम में किसी स्थल पर एक लाख रुपयों को जो उनके पास में थे गाड़ने को निकले । स्थल खोदने पर उनको सुवर्ण एवं रत्नों से पूर्ण एक कलश प्राप्त हुआ। दोनों भ्राताओं ने तीर्थयात्रा के समय इस प्रकार की धनप्राप्ति को शुभ समझा
और तेजपाल की पत्नी गुणवती एवं चतुरा अनोपमा ने उक्त धन को तीर्थों में ही व्यय करने की सुसंमति दी। दोनों भ्राता तीर्थयात्रा करके सकुशल लौटे और आकर धवलक्कपुर में वस गये ।२
.१-'सुतस्तस्यास्ति लावण्यप्रसादो युधि यद्भुजः। असि जिह्वामिवाकृष्य रिपुनासाय सर्पति ॥२०॥......
युद्धमार्गेषु यस्यासिः प्रतापप्रसरोष्मलः अतीवारियशोवारि पायं पाये न निर्ववौ ॥२१॥ प्रतापतापिता यस्य निमज्ज्यासिजले द्विषः । भीताः शीतादिवासेदुः सद्यश्चण्डांशुमण्डलम् ॥२२॥ सर्वेश्वरममुकुर्वन्नुर्वीमण्डलमण्डनम् । भविष्यसि श्रियो भर्चा सुखांभोधिचतुर्भुजः॥२३॥
अस्यास्ति च सुतो वीरधवलः प्रधनाय यः। भार्गवस्य पुनःक्षत्रक्षयसन्धा समीहते ॥२४॥". सु०सै० सर्ग०३ पृ० २२ २-'सोऽवग निर्माय यात्रा त्वं, धवलक्कं यदष्यसि राजव्यापारलाभात्ते, तदा भाव्युदयो महान् ॥२१॥ विधिना शास्त्रदृष्टेन वजन्तौ पथि सौदरौ हडालकपुरं प्राप्ती, बन्धुभिस्तौ समन्वितौ ॥२४॥ विलोक्य गृहसर्वस्वं जातं लक्षत्रयी मितम् । एवं लखं ततो लावा निधातु निशि तौ गतौ ॥२८॥ सुवर्णश्रेणिसम्पूर्णः पूर्णकुम्भः शुभप्रदः श्राविरासीत्क्षणादेव, देवकुम्भनिभस्ततः ॥३०॥ . 'धवलकरं धाम, धर्मकामार्थसम्पदाम् । श्रीवीरधवलाधीशगजधानीमुपागतौ ॥४६॥ वच० प्रस्ताव प्र० पृ०४ 'इतो वस्तुपाल-तेजपाली हट्ट मण्ड यतः। तेजःपालस्य राणकेन सह प्रीतिर्जाता । राजकुले वस्त्राणि पूरयति..."
पु० प्र० को०११८) पृ० ५४ (व० ते० प्रबंध० ३५)