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________________ खण्ड ] :: प्राग्वाट अथवा पौरवालज्ञाति और उसके भेद :: सर्वथा भिन्न और स्वतन्त्र ज्ञाति है और इसका उत्पत्ति-स्थान राजस्थान भी नहीं है । अतः प्राग्वाट-इतिहास में इस ज्ञाति का इतिहास भी नहीं गूंथा गया है ।* लघुशाखीय और बृहद्शाखीय अथवा लघुसंतानीय और बृहद्संतानीय-भेद - और दस्सा-बीसा नाम और उनकी उत्पत्ति लघुशाखीय और बृहद्शाखीय अथवा लघुसंतानीय और बृहद्संतानीय नामों को व्यवहार में प्रायः लोड़ेसाजन और बड़े-साजन, छोटे भाई और बड़े भाई कहते हैं। परन्तु प्राचीन प्रतिमा-लेखों में, शिला-लेखों में, प्रशस्तियों में लघुसंतानीय अथवा लघुशाखीय और बृहद्संतानीय अथवा बृहद्शाखीय शब्दों का ही प्रायः प्रयोग हुआ मिलता है। अतः यह स्वतः सिद्ध हो जाता है कि मूल शब्द तो लघुसंतानीय अथवा लघुशाखीय और वृहद्संतानीय अथवा बृहद्शाखीय ही हैं और शेष नाम इनके पर्यायवाची शब्द हैं, जिनकी उत्पत्ति अथवा जिनका प्रयोग बोल-चाल में सुविधा की दृष्टि से अमुक अमुक समय अथवा वातावरण के आधीन हुआ है। लघुशाखीय और बृहद्शाखीय, लघुसंतानीय और बृहद्संतानीय शब्दों का अर्थ होता है लघुसंतान अथवा लघुशाखा-सम्बन्धी और बृहद्संतान अथवा बृहद्शाखा-संबंधी । लघुसंतान, लघुशाखा और बृहद्संतान । बृहशाखा दोनों में संतान और शाखा शब्दों का प्रयोग यह सिद्ध करता है कि दोनों में भ्राता का सम्बन्ध है, दोनों एक ज्ञाति ही की संतति हैं, दोनों दल किसी एक ही वर्ग के दो अंग हैं, जिनके धर्म, देश, इतिहास, पूर्वज, संस्कार, संस्कृति, भाषा, वेष-भूषा, रहन-सहन, रीति-रिवाज, साधु-पर्व, त्योंहार आदि सब एक ही हैं। परन्तु इतना अवश्य है कि जिस कारण वे दो दलों में विभाजित हो गये हैं, उस कारण का प्रभाव उनके सामाजिक अवसरों पर मिलने, जुलने पर जैसे परस्पर होने वाले प्रीतिभोजों पर और ऐसे ही अन्य सामाजिक संबंधों, संमेलनों पर अवश्य पड़ा है। उक्त दोनों दल अथवा शाखायें हिन्दू और जैन दोनों ही ज्ञातियों में पाई जाती हैं । परन्तु जिन २ ज्ञातियों में ये छोटी बड़ी शाखायें हैं, उन २ में इनके जन्म का कारण एक ही हो यह बात नहीं है और और न ही ऐसा कभी संभव भी हो सकता है। ॐ पचराई' के शान्तिनाथ-जिनालय का संवत् ११२२ का लेखांश:___ 'पौरपट्टान्वये शुद्ध साधु नाम्ना महेश्वरः। महेश्वरेय विख्यातस्तत्सतः धर्मसंज्ञकः ॥' -'पुरवार बन्धु' द्वितीय वर्ष, संख्या ३.४ अप्रैल, मई १६४० प्रसिद्ध इतिहासज्ञ श्री अगरचन्द्रजी नाहटा भी पौरवाड़ और परवार ज्ञाति को एक नहीं मानते हैं । देखो उनका लेख 'क्या परवार और पोरवाड़ जाति एक ही है ?' 'परवार बन्धु' वर्ष तृतीय, संख्या ४, मई १६४१ पृ० ४, ५.६. . परवारज्ञाति के सम्बन्ध में इतिहास-सामग्री भी प्रायः नहीं मिलती है । इस ज्ञाति के प्रसिद्ध पुरुषों, अन्य दिगम्बर जैन विद्वानों से इस ज्ञाति की उत्पत्ति, विकाश के सम्बन्ध में लम्बा पत्र-व्यवहार किया गया, परन्तु वे कुछ भी नहीं दे सके। इस ज्ञाति में उत्पन्न उत्साही विद्वानों के लिये यह विचारणीय है। (प्रस्तावना में देखिये)
SR No.007259
Book TitlePragvat Itihas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatsinh Lodha
PublisherPragvat Itihas Prakashak Samiti
Publication Year1953
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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