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प्राग्वाट-इतिहास द्वितीय खंड
वर्तमान जैनकुलों की उत्पत्ति श्रावकवर्ग में वृद्धि के स्थान में घटती
श्रावकसमाज में जो वृद्धि होकर, उसकी गणना करोड़ों पुरुषों तक पहुंची थी, अनेक महान् जैनाचार्यों के अथक परिश्रम का वह सुफल था। परन्तु क्रमबद्ध विवरण नहीं मिलने के कारण श्रावकसमाज की वृद्धि का इतिहास आज तक नहीं लिखा जा सका।
गुप्तवंश के राज्य की स्थापना तक जैनधर्म का प्रभाव और प्रसार द्रुतगति से बढ़ता रहा था । गुप्तवंश के राजा वैष्णवमतानुयायी थे। उनके समय में फिर से ब्राह्मणधर्म जाग्रत हुआ और अश्वमेधयज्ञों का पुनरारम्भ हुमा । परन्तु इतना अवश्य है कि गुप्तवंश के सम्राट अन्य धर्मों के प्रति भी उदार और दयालु रहे थे। फिर भी जैनधर्म की प्रसार-गति में धीमापन अवश्य आ गया था ।
गुप्तकाल से ही जैनाचार्यों का विहार मध्यभारत, मालवा, राजस्थान और गुजरात तक ही सीमित रह गया था । इनसे पहिले के जैनाचार्यों का विहार उधर उत्तर-पश्चिम में पंजाब, गंधार, कंधार, तक्षशिला तक और पूर्व में विहार, बंगाल, कलिंग तक होता था और उसी का यह परिणाम था कि जैनधर्म के मानने वालों की संख्या कई कोटि हो गई थी। जब से जैनाचार्यों ने लम्बा विहार करना बन्द किया और मालवा, राजस्थान, मध्यमारत, गुजरात में ही भ्रमण करके अपनी आयु व्यतीत करना प्रारम्भ किया, जैनधर्म के मानने वालों की संख्या