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:: प्राग्वाट - इतिहास ::
संघयात्रायें - वि० सं० १९८१ में आपश्री ने राजगढ़ के संघ के साथ में मंडपाचलतीर्थ तथा वि० सं० १९८२ में सिद्धाचलतीर्थ और गिरनारतीर्थों की तथा वि० सं० १६८६ में गुड़ाबालोतरा से श्री जैसल - मेरतीर्थ की बृहद् संघयात्रायें कीं और मार्ग में पड़ते अनेक छोटे-बड़े तीर्थ, मंदिरों के दर्शन किये । श्रावकों ने आपश्री के सदुपदेश से अनेक क्षेत्रों में अपने धन का प्रसंशनीय उपयोग किया ।
उपधानतप - वि० सं० १६६१ में पालीताणा में और १६६२ में खाचरौद में उपधानतप करवाये, जिनमें सैकड़ों श्रावकों ने भाग लेकर अपने जीवनोद्धार में प्रगति की ।
अंजनशलाकाप्राण-प्रतिष्ठा - वि० सं० १६८१, १६८२, १६८७ में झखड़ावदा ( मालवा ), राजगढ और थलवाड़ में महामहोत्सव पूर्वक क्रमशः प्रतिष्ठायें करवाई; जिनमें मारवाड़, गुजरात, काठियावाड़ जैसे बड़े प्रान्तों के दूर २ के नगरों के सद्गृहस्थों, संघों ने दर्शन, पूजन का लाभ लिया ।
यात्रायें - वि० सं० १६८५ में दीमा, भोरोल तथा उसी वर्ष अर्बुदाचलतीर्थ, सेसलीतीर्थ और वि० सं० १६८७ में मांडवगढ़तीर्थ (मंडपाचलतीर्थ) की अपनी साधु एवं शिष्य - मण्डली के सहित यात्रायें कीं ।
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सूरिपदोत्सव - जैसा ऊपर लिखा जा चुका है कि वि० सं० १६६३ में आहोर नगर में श्रीमद् विजय - भूपेन्द्रसूरिजी का स्वर्गवास हो गया था। श्री संघ ने आपश्री को सर्व प्रकार से गच्छनायकपद के योग्य समझ कर अतिशय धाम- धूम, शोभा विशेष से वि० सं० १६६५ वैशाख शु० १० सोमवार को अष्टावकोत्सव के संहित सानन्द विशाल समारोह के मध्य आपश्री को आहोर नगर में ही सूरिपद से शुभमुर्हत में अलंकृत किया । साहित्य-साधना - शासन की विविध सेवाओं में आपश्री की साहित्यसेवा भी उल्लेखनीय हैं। सूरिपद की प्राप्ति तक आपश्री ने छोटे-बड़े लगभग चालीस ग्रंथ लिखे और मुद्रित करवाये होंगे। इन ग्रंथों में इतिहास की दृष्टि से 'श्री यतीन्द्र-विहार-दिग्दर्शन' भाग १, २, ३, ४ 'श्री कोर्टाजीतीर्थ का इतिहास', 'मेरी नेमाड़यात्रा', धर्मदृष्टि से 'जीवभेद - निरूपण', 'जिनेन्द्र गुणगानलहरी,' 'अध्ययनचतुष्टय', 'श्री अर्हत्प्रवचन', 'गुणानुरागकुलक' आदि तथा चरित्रों में 'घटकुमारचरित्र', 'जगडूशाहचरित्र', 'कयवनाचरित्र', 'चम्पकमालाचरित्र' श्रादि प्रमुख ग्रंथ विशेष आदरणीय, संग्रहणीय एवं पठनीय हैं। आपश्री के विहार-दिग्दर्शन के चारों भाग इतिहास एवं भूगोल की दृष्टियों से बड़े ही महत्त्व एवं मूल्य के हैं ।
गच्छनायकत्व की प्राप्ति के पश्चात् गच्छ भार वहन करना आप श्री का प्रमुख कर्त्तव्य रहा । फिर भी श्रापश्री ने साहित्य की अमूल्य सेवा करने का व्रत अक्षुष्ण बनाये रक्खा । तात्पर्य यह है कि शासन की सेवा और साहित्य की सेवा आपके इस काल के क्षेत्र रहे हैं । सूरिपद के पश्चात् मरुधरप्रान्त श्रापका प्रमुख विहार क्षेत्र रहा है । वि० सं० १६६५ से वि० सं० २००६ तक के चातुर्मास क्रमशः बागरा, भूति, जालोर, बागरा, खिमेल, सियाणा, आहोर, बागरा, भूति, थराद, थराद, बाली, गुड़ाबालोतरा, थराद, बागरा में हुये हैं। चातुर्मासों में आपश्री के प्रभावक सदुपदेशों से सामाजिक, धार्मिक, शैक्षणिक अनेक प्रशंसनीय कार्य हुये हैं, जिनका स्थानाभाव से वर्णन देना अशक्य है ।
अंजनशलाका-प्रतिष्ठायें – शेषकाल में वि० सं० १६६४ में श्री लक्ष्मणीतीर्थ (मालवा), सं० १६६६ में रोवाड़ (सिरोही), फतहपुरा (सिरोही), भूति (जोधपुर), सं० १६६७ में आहोर जालोर (जोधपुर), सं० १६६८ में बागरा (जोधपुर), सं० २००० में सियाणा (जोधपुर), सं० २००१ में आहोर (मारवाड़), सं० २००६ में बाली (मारवाड़),
सूरीपद के पश्चात् आपश्री के कार्य और आपश्री के पन्द्रह चातुर्मास