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8. चौबीस तीर्थंकर स्तवन
जो अनादि से व्यक्त नहीं था त्रैकालिक ध्रुव ज्ञायक भाव । वह युगादि में किया प्रकाशित वन्दन ऋषभ जिनेश्वर राव ॥ १ ॥ जिसने जीत लिया त्रिभुवन को मोह शत्रु वह प्रबल महान । उसे जीतकर शिवपद पाया वन्दन अजितनाथ भगवान ॥२॥ काललब्धि बिन सदा असम्भव निज सन्मुखता का पुरुषार्थ । निर्मल परिणति के स्वकाल में सम्भव जिनने पाया अर्थ ॥ ३ ॥ त्रिभुवन जिनके चरणों का अभिनंदन करता तीनों काल । वे स्वभाव का अभिनन्दन कर पहुँचे शिवपुर में तत्काल ॥४॥ निज आश्रय से ही सुख होता यही सुमति जिन बतलाते । सुमतिनाथ प्रभु की पूजन कर भव्यजीव शिवसुख पाते ॥५॥ पद्मप्रभ के पद पंकज की सौरभ से सुरभित त्रिभुवन । गुण अनन्त के सुमनों से शोभित श्री जिनवर का उपवन ॥६॥
श्री सुपार्श्व के शुभ सु-पार्श्व में जिनकी परिणति करे विराम । वे पाते हैं गुण अनन्त से भूषित सिद्ध सदन अभिराम ॥७॥ चारु चन्द्रसम सदा सुशीतल चेतन चन्द्रप्रभ जिनराज । गुण अनन्त की कला विभूषित प्रभु ने पाया निजपद राज ॥८॥ पुष्पदन्त सम॰गुण आवलि से सदा सुशोभित हैं भगवान । मोक्षमार्ग की सुविधि बताकर भविजन का करते कल्याण ॥ ९ ॥ चन्द्रकिरण सम शीतल वचनों से हरते जग का आताप । स्याद्वादमय दिव्यध्वनि से मोक्षमार्ग बतलाते आप ॥ १० ॥ त्रिभुवन के श्रेयस्कर हैं श्रेयांसनाथ जिनवर गुणखान । निज-स्वभाव ही परम श्रेय का केन्द्र बिन्दु कहते भगवान ॥ ११ ॥ शत इन्द्रों से पूजित जग में वासुपूज्य जिनराज महान । स्वाश्रित परिणति द्वारा पूजित पञ्चमभाव गुणों की खान ॥ १२ ॥