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गुरुचिंतन
45 लेना ही उचित है; अन्य कुछ विकल्प करना उचित नहीं है; आकुलता का कारण है।
आत्मा के इस सहजज्ञानस्वभाव को ही ये छह नय अभिव्यक्ति प्रदान करते हैं।"
(२६-२७) नियतिनय और अनियतिनय "आत्मद्रव्य नियतिनय से जिसकी ऊष्णता नियमित (नियत) होती है - ऐसी अग्नि की भांति नियतस्वभावरूप भासित होता है और अनियतरूप से जिसकी ऊष्णता नियति (नियम) से नियमित नहीं है - ऐसे पानी की भांति अनियत स्वभावरूप भासित होता हैं।"
१. नय क्रमांक २६ से ३३ तक ४ नय युगलों द्वारा कार्योत्पत्ति में कारणभूत ५ समवायों का स्वरूप स्पष्ट किया गया है। इस नययुगल में द्रव्य-स्वभाव और पर्यायस्वभाव के रूप में स्वभाव नामक समवाय का स्वरूप स्पष्ट किया गया है।
२. अग्नि की ऊष्णता की भाँति आत्मा में ऐसी योग्यता है कि वह त्रिकाल एक रूप चैतन्य स्वभाव में रहे इस योग्यता का नाम नियति धर्म है और इसे जानने वाला ज्ञान नियतिनय है। परमपारिणामिक भाव आत्मा का नियत स्वभाव होने से श्रद्धेय और ध्येय है। यदि आत्मा में यह नियत स्वभाव न होता तो उसका सर्वनाश हो जाता।
३. पानी की ऊष्णता के समान आत्मा में ऐसी योग्यता है कि वह पर्याय में कर्मोदय की सन्निधि में रागादि विकार रूप परिणमन करें - इसी योग्यता को अनियति धर्म कहते हैं और इसे जानने वाला ज्ञान अनियतिनय है।
४. एकमात्र परमपारिमाणिकभाव ही आत्मा का नियतस्वभाव है तथा औपशमिकादि चार भाव अनियत स्वभावरूप योग्यता से होते हैं, क्योंकि वे सदा एक से नहीं रहते।