________________
14
गुरु चिंतन गाथा-७ ___ (३२) सद्भूत व्यवहार नय से ज्ञानी के दर्शन-ज्ञान व चारित्र के भेद कहे गये हैं; परन्तु परमार्थ से आत्मा में दर्शन-ज्ञान-चारित्र के भेद नहीं हैं।
(३३) जिस प्रकार अग्नि जलाती है अत: दाहक है, पचाती है अत: पाचक है और प्रकाश करती है अतः प्रकाशक है; उसी प्रकार व्यवहार नय से जीव जानता है अतः ज्ञान है, देखता है अतः दर्शन है, आचरता है अत: आचरण (चारित्र) है और परमार्थ से तो जीव शुद्धचैतन्य मात्र अभेद वस्तु है।
गाथा-८ (३४) यदि ऐसा है तो एक परमार्थ का ही उपदेश देना चाहिए, व्यवहार का उपदेश किसलिए दिया है ? इसके समाधान में आचार्य कहते हैं कि जिसप्रकार अनार्य-म्लेच्छ को म्लेच्छ भाषा बिना वस्तु स्वरूप समझाना संभव नहीं है, उसी प्रकार व्यवहार के बिना परमार्थ का उपदेश देना या समझाना संभव नहीं है, अत: व्यवहार परमार्थ का प्रतिपादक होने से स्थापित करने योग्य तो है; परन्तु अनुसरण करने योग्य नहीं है।
गाथा-९,१० (३५) व्यवहार परमार्थ का प्रतिपादक कैसे है, वह कहते हैं - जो भावश्रुतज्ञानरूप स्वसंवेदनज्ञान केवल शुद्धात्मा को जानता है वह परमार्थ से श्रुतकेवली है और जो द्वादशांग भेदरूप समस्त द्रव्यश्रुतज्ञान को जानता है वह व्यवहार श्रुतकेवली है; यद्यपि जिस प्रकार पूर्व पुरुषों को शुक्लध्यान रूप स्वसंवेदनज्ञान होता था, उस प्रकार स्वसंवेदन ज्ञान अभी नहीं होता है, तथापि निश्चय धर्मध्यान