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________________ गुरु चिंतन प्रवचन के अंशरूप जो प्राभृत हैं, उनका परिभाषण करते हैं। (५) वह प्राभृत प्रामाणिक है, क्योंकि वह सर्वज्ञ केवली भगवान द्वारा प्रणीत है तथा केवलियों के निकटवर्ती साक्षात् सुनने तथा स्वयं अनुभव करने वाले गणधर द्वारा कथित है। (६) सर्व सिद्धों की वन्दना करने का आशय यह है कि सिद्ध अनन्त हुए हैं। अनादि-अनन्त एक परमात्मा या सिद्ध नहीं है। अतः यह मान्यता ठीक नहीं है कि ईश्वर एक ही है तथा वह 'अनादि-अनन्त है। (७) इस ग्रन्थ में शुद्धात्मा का स्वरूप अभिधेय अर्थात् कथन योग्य है, शुद्धात्मा वाच्य है और उसके निरूपण करने वाले शब्द वाचक हैं तथा शुद्धात्मा के स्वरूप की प्राप्ति होना प्रयोजन है। इस तरह अभिधेय, वाच्य-वाचक संबंध तथा प्रयोजन का निरूपण किया गया है। (८) आचार्य अमृतचन्द्र ने समयसार की आत्मख्याति टीका में परिभाषा शैली' का प्रयोग किया है। जो अधिकार को अर्थ द्वारा यथास्थान सूचित करें उसे परिभाषा शैली कहते हैं। परन्तु जयसेनाचार्य ने समयसार की तात्पर्यवृत्ति टीका में 'पदखण्डना' शैली का प्रयोग किया है। गाथा सूत्र में आये हुए जो पद या शब्द हैं, उनकी व्याख्या क्रमशः करना पदखण्डना शैली है। गाथा-२ (९) गाथा २ में स्वसमय और परसमय का स्वरूप कहा है। वहां दर्शन-ज्ञान-चारित्रमय आत्मस्वभाव में स्थित आत्मा स्वसमय है और पुद्गल कर्मों के प्रदेशों में स्थित आत्मा को परसमय है - ऐसा जानो।
SR No.007255
Book TitleGuru Chintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMumukshuz of North America
PublisherMumukshuz of North America
Publication Year2013
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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