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कलकल कलमक
मृत्यु महोत्सव
कलकल कालमा कलम कृत्यू
स्वर्गादेत्य पवित्र-निर्मल-कुले, संस्मर्यमाणा जनैनिर्दत्वा भक्ति-विधायिनां बहुविधं, वाञ्छानुरूपं धनम् । म भुक्त्वा भोगमहर्निशं पर-कृतं, स्थित्वा क्षणं मण्डले, पात्रावेश-विसर्जनामिव मृति, सन्तो लभन्ते स्वतः॥१८॥
अन्वयार्थ-(स्वर्गात्) देव लोक से (पवित्र-निर्मल कुले) । पवित्र एवं निर्मल कुल में (एत्य) आ करके वे भव्य-जन
(भक्ति-विधायिनां) भक्ति करनेवाले मनुष्यों के लिये (बहुविधं) । अनेक प्रकार का (वाञ्छानुरूपं) इच्छानुकूल (धन) धन । (दत्वा) प्रदान कर (जनैः) सर्व-जनों द्वारा (संस्मर्यमाणाः । सन्तः) संस्मृत होते हुए तथा (अहर्निशं) दिन-रात (पर-कृतं) पुण्य-प्रदत्त/इन्द्रिय-जनित (भोगं) सांसारिक सुख (भुक्त्वा ) भोग
कर (मण्डले) भू-मण्डल पर (इव) मानों (क्षणं) क्षण भर के । लिये (स्थित्वा) ठहरकर (स्वतः) स्वयं (पात्रावेशविसर्जनां) पात्र-संबंधी आवेश का है विसर्जन जिसमें, ऐसी (मृति) मृत्यु को (सन्तो) सन्त (लभन्ते) प्राप्त कर लेते हैं।
सुरपति का साम्राज्य भोगकर, नर-भव, सुकुल, सुयशपाते, दान-पुण्य में अभिवांछित-धन, प्रभु-भक्तों पर बरसाते। सुख-समृद्धि में जीवन के दिन, मानों पल में कट जाते, भव का नाटक छोड़ अन्त में, सन्त स्वयं शिव-पद पाते।