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be मृत्यु महोत्सव
सर्व-दुःख-प्रदं पिण्डं, दूरीकृत्यात्मदर्शिभिः । मृत्यु - मित्र - प्रसादेन, प्राप्यन्ते सुख - सम्पदः ॥ ६ ॥
अन्वयार्थ - ( मृत्यु - मित्र - प्रसादेन ) मृत्युरूपी मित्र के प्रसाद से (सर्वदुःखप्रदं पिण्डं) सर्व दुःखों को प्रदान करनेवाले पिण्डशरीर को ( दूरीकृत्य ) दूर करके (आत्मदर्शिभिः) आत्मदर्शी जनों द्वारा (सुख - सम्पदः) सुख-सम्पदाएँ ( प्राप्यन्ते) प्राप्त की जाती हैं।
नर-तन पा नर नर्तन करता, कारण यह मोही-मन है, सब दुःखों को देनेवाला, दुष्ट - पिंड यह नर-तन है । इसी पिंड से पिंड छुड़ाकर, मृत्यु -सखा सुख देता है, आत्मदर्शियों से प्रतिफल में, स्वयं नहीं कुछ लेता है ॥
अन्तर्ध्वनि: आत्मदर्शी साधक मृत्युरूपी मित्र की कृपा से ही सर्व दुःखों के पिंड इस शरीररूपी पिंड़ से पिंड छुड़ाकर सुखसंपत्ति को प्राप्त करते हैं ! मृत्यु-मित्र से भय कैसा ?
Essence: Those who have attained selfrealization, acquire pleasures and treasures only after setting apart this body, a torture-filled troublegiving pest, through the grace of their 'friend in need', Death!
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