SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 30
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ लणाकालणाकालकालाब मृत्यु महोत्सव कलकलाकारणाकालमा ज्ञानिन् ! भयं भवेत्कस्मात्प्राप्ते मृत्यु-महोत्सवे । स्वरूपस्थः पुरं याति, देही देहान्तर-स्थितिम् ॥३॥ अन्वयार्थ (ज्ञानिन् !) हे ज्ञानी जीव! (मृत्यु-महोत्सवे) मृत्यु-महोत्सव के (प्राप्ते) प्राप्त होने पर (भयं) भय (कस्मात्) किससे (भवेत्) हो सकता है ? (देही) जीवात्मा (स्वरूपस्थः) स्वरूप-स्थित हो (देहान्तरस्थितिं पुरं) अन्य देह में स्थितिरूप नगर को (याति) प्राप्त होता है। जब कोई जन धूम-धाम से, अन्य-नगर रहने जाता, नव-निवास के शुभ-अवसर पर, वह न तनिक भी घबराता। मृत्यु-महोत्सव की बेला में, ज्ञानी ! तुमको भय कैसा? आत्मलीन चेतन को नूतन, तन मिलता कंचन जैसा॥ अन्तर्ध्वनि : हे ज्ञानी जीव! तेरी मृत्यु एक महोत्सव बनकर आयी है। रत्नत्रय स्वरूप में स्थित आत्मा अब इस जीर्ण-शीर्ण शरीर को छोड़ एक दिव्य नवीन शरीर में रहने जा रही है। घर बदलते समय डर कैसा? यह तो आनन्द का अवसर है। ___Essence :0 wise aspirant! on the occasion of A D_your Death-festival what is there to be afraid of? 4 The soul absorbed in its own nature, peace, is just getting transfered to a new city i.e. an ultra fresh de body!
SR No.007251
Book TitleMrutyu Mahotsav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhyansagar Muni
PublisherPrakash C Shah
Publication Year2011
Total Pages68
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy