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श्री आगमीयसूक्तावल्यादि] इस प्रकाशन की विकास-गाथा * यह प्रत "श्री आगमीयसूक्तावल्यादि" के नामसे सन १९४९ (विक्रम संवत २००५) में श्री 'सूर्यपूरीया जैनपुस्तकप्रचारक संस्था' नामक संस्था द्वारा प्रकाशित हुई, इस के संपादक-महोदय थे पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यश्री आनंदसागरसूरीश्वरजी (सागरानंदसूरिजी) महाराज साहेब |
* इस प्रतमे पूज्यपाद् आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराजसाहेबने चार विषयो का संग्रह किया है । (१) आगमीय सूक्तावलि, (२) आगमीय सुभाषित, (३) आगमीय संग्रहश्लोक, (४) तथा आगमीय लोकोक्ति | इन चार विषयोमे 'आगमीय सूक्तावलि' का वर्णन विस्तार से प्राप्त है, 'आगमीय लोकोक्ति' में भी कुछ-कुछ विस्तार तो दिखाई देत है, मगर आगमीय सुभाषित और आगमीय संग्रहश्लोक ये दो विषयमे बहोत कम माहिती दिखाई दे रही है | जैसा वडीलो के पास से सुना था, उस हिसाब से तो पूज्यपाद आगमोद्धारकरी संकलित माहिती कुछ ज्यादा ही थी, परंतु इस प्रत को छपने से पहेले उस संकलनमे से कितना कुछ नष्ट हो गया था | ( हो शकता है ये बात सच हो) ।
*पूज्यपाद आगमोद्धारकश्रीने इसमे 'विशेषावश्यकभाष्य'का भी समावेश किया है।
*हमारा ये प्रयास क्यों? - आगम की सेवा करने के हमें तो बहोत अवसर मिले, अब तक मेरे प्रकाशित किये हुए पुस्तको के १,००,००० से ज्यादा पृष्ठ हो चुके है, किन्तु लोगो की पूज्यश्री सागरानंदसूरीश्वरजी के प्रति श्रद्धा तथा प्रत स्वरुप प्राचीन प्रथा का आदर देखकर हमने इसी प्रत को स्केन करवाई, उसके बाद एक स्पेशियल फोरमेट बनवाया, जिसके बीचमे पूज्यश्री संपादित प्रत ज्यों की त्यों रख दी, ऊपर शीर्षस्थानमे प्रत संबंधी उपयोगी माहिती लिख दी है, ताकि पढ़नेवाले को प्रत्येक पेज पर कौनसा विषय आदि चल रहा है उसका सरलतासे ज्ञान हो शके |
पूज्यपाद आगमोद्धारकरी ने ऐसे ५२ विषयो को वर्गीकृत किया था, आज भी उनमे से कई प्रते मिलती है, जिसमे ये विभाजन-क्रमांक देखने को मिलते है, उनमे से थोडे विषयो का काम हुआ भी है, जो मुद्रित स्थितिमे भी प्राप्त है ।
* अभी तो ये jain_e_library.org का 'इंटरनेट पब्लिकेशन' है, क्योंकि विश्वभरमें अनेक लोगो तक पहुँचने का यहीं सरल, सस्ता और आधुनिक रास्ता है, आगे जाकर ईसिको मुद्रण करवाने की हमारी मनीषा है।
..... मुनि दीपरत्नसागर.