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कुशलाकुशलं कर्म, परलोकश्च न क्वचित् । एकान्तग्रहरक्तेषु, नाथ: स्वपरवैरिषु ।।८।।
हे भगवन ! आपके (अनेकान्त) मतरूपी अमृत से बाहर / पृथक् तथा आप्त नहीं होने पर भी ‘मैं आप्त हूँ' इस अभिमान से दग्ध / गर्वित सर्वथा एकान्तवादिओं के द्वारा मान्य वस्तु स्वरूप प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से बाधित है।
हे नाथ ! स्व-पर के बैरी / अपना और अन्य का बुरा करने वाले, एकान्त के आग्रह में आसक्त अथवा एकान्तरूपी पिशाच से ग्रसित मतवादिओं के यहाँ शुभ-अशुभ कर्म, परलोक आदि कुछ भी व्यवस्था सिद्ध नहीं होती है । '
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इसप्रकार एकान्त-मतवादिओं द्वारा प्रतिपादित वस्तु-स्वरूप प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से बाधित होने के कारण उनके प्रवर्तक सर्वज्ञ नहीं हैं; परन्तु वीतरागी सर्वज्ञ जिनेन्द्र भगवान द्वारा प्रतिपादित वस्तु-स्वरूप प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से अबाधित है; उसमें शुभ-अशुभ कर्म, परलोक आदि सभी कुछ भली-भाँति सिद्ध हो जाते हैं; इससे सिद्ध होता है कि वे सर्वज्ञ हैं / पर से पूर्ण निरपेक्ष अपने अतीन्द्रिय- प्रत्यक्ष ज्ञान द्वारा तीन-काल- तीनलोकवर्ती स्व-पर सभी पदार्थों को एकसाथ जानते हैं।
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इसप्रकार ‘जिनेन्द्र भगवान सर्वज्ञ हैं' - यह सिद्ध हुआ अर्थात् विशेष रूप मं सर्वज्ञ की सिद्धि हुई ।
प्रश्न ६ : सामान्य सर्वज्ञ सिद्धि और विशेष सर्वज्ञ सिद्धि में अंतर बताइए । उत्तर : ये दोनों सर्वज्ञ को ही सिद्ध करनेवाली होने पर भी इन दोनों में कुछ अन्तर है; जो इसप्रकार हैसामान्य सर्वज्ञ सिद्धि
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१. इसमें सर्वज्ञ का अस्तित्व सिद्ध किया जाता है।
२. इसे ज्ञेयों या अन्य परोक्ष ज्ञानों
के माध्यम से सिद्ध किया जाता है
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विशेष सर्वज्ञ सिद्धि
इसमें विवक्षित व्यक्ति सर्वज्ञ है
यह सिद्ध किया जाता है। इसे व्यक्ति के निर्दोष व्यक्तित्व
वचन के माध्यम से सिद्ध किया जाता है।
• तत्त्वज्ञान विवेचिका भाग २ / २२६