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दोषावरणयोर्हानिः, निःशेषास्त्यतिशायनात् । क्वचिद्यथा स्वहेतुभ्यो, बहिरन्तर्मलक्षयः॥४॥ दोष आवरण घटते-बढ़ते, अत: किसी के पूरे नष्ट ।
जैसे स्व साधन से धातु के अंतर्बहि मल हों नष्ट ॥४॥ शब्दश: अर्थ : दोष मोहादि भावकर्म, आवरणयोः=ज्ञानावरण आदि द्रव्यकर्म की, हानि:-हानि/हीनता, नि:शेषा पूर्ण रूप से, अस्ति हो जाती है, अतिशायनात्=अतिशायन होने से/हीनाधिक होते रहने से, क्वचित् कहीं पर/किसी के; यथा जैसे, स्वहेतुभ्यो अपने कारणों से, बहि:=बाहर के, अन्त:=अन्दर के, मलक्षय: मल का क्षय। सरलार्थ : जैसे (लोक में) अपने कारणों से (भट्टी में तपाने आदि से) अशुद्ध स्वर्ण आदि के (किट्ट-कालिमा आदि) अंतरंग-बहिरंग मल/ गंदगी का अभाव हो जाता है; उसीप्रकार दोष (मोहादि भावकर्म) और आवरण (ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म) अतिशायन होने से/हीनाधिक/घटनेबढ़ने के स्वभाववाले होने से, किन्हीं के (शुद्धोपयोग आदि) अपने कारणों से पूर्णतया क्षय को प्राप्त हो जाते हैं। (इससे प्रगट होने वाली वीतरागतासर्वज्ञता ही आपकी महानता का कारण है।)॥४॥ अब, इसे ही दूसरे हेतु द्वारा सिद्ध करते हैं -
सूक्ष्मान्तरितदूरार्थाः प्रत्यक्षाः कस्यचिद्यथा। अनुमेयत्वतोऽग्न्यादिरिति सर्वज्ञसंस्थितिः॥५॥ सूक्ष्म अन्तरित दूर क्षेत्रगत, अर्थ किसी के हैं प्रत्यक्ष।
अनलादि अनुमेयपना सम, सिद्ध हुए इससे सकलज्ञ ॥५॥ शब्दश: अर्थ : सूक्ष्म द्रव्य की अपेक्षा से इन्द्रिय-अगोचर/परमाणु आदि, अन्तरित-काल की अपेक्षा से इन्द्रिय-अगोचर/राम-रावण आदि, दूर=क्षेत्र की अपेक्षा से इन्द्रिय-अगोचर/मेरु आदि, अर्थाः=पदार्थ, प्रत्यक्षा:=प्रत्यक्ष ज्ञानगोचर, कस्यचित्=किसी के, यथा जैसे, अनुमेयत्वतः=अनुमेय/अनुमानज्ञान के विषय होने से, अग्नि-आदिः=अग्नि आदि पदार्थों के समान, इति इसप्रकार, सर्वज्ञ-संस्थिति:=सर्वज्ञ की सत्ता सम्यक् रूप से सिद्ध हुई।
-देवागम स्तोत्र (आप्तमीमांसा)/२१५ -