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तत्त्वज्ञान तरंगिणी तृतीय अध्याय पूजन आत्मा अचिन्त्य वैभवशाली यह तो है शुद्ध भाव वाली । "यह मोह दोष से सदा रहित है रंच न कभी राग वाली ॥
वीरछंद हैं चिद्रूप शुद्ध प्राप्ति के भी उपाय बहु विविध प्रकार । किन्तु ध्यान उन सबमें उत्तम श्रेष्ट उपाय परम सुखकार ॥ निज चिद्रूप शुद्ध की गागर गुण अनंत से है भरपूर । किन्तु आलसी जीवों से यह रहती है योजनों सुदूर ॥२५॥ ॐ ह्रीं भट्टारकज्ञानभूषणविरचितायां तत्त्वज्ञानतरगिण्यां शुद्धचिद्रूप प्राप्तत्युपायनिरूपणनाम तृतीयाध्याये आनन्दस्वरूपाय पूर्णार्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।
महाअर्ध्य
छंद हे दीनबंधु
जब तक विभाव भाव है स्वभाव न होगा । होगा स्वभाव भाव तो विभाव न होगा ॥ जब तक नहीं सम्यक्त्व का पाओगे सूत्र तुम । मिथ्यात्व मोह भाव का अभाव न होगा ॥ ये पुण्य पाप भाव कर्म बंध स्रोत हैं । जब तक न ज्ञान भाव हो निज भाव न होगा ॥ औषधि स्वपर विवेक की जिसने भी कभी पी । संसार रोग वाला उसे घाव होगा चिद्रूप शुद्ध प्राप्ति का ही यत्न श्रेष्ठ है । इस यत्न से कोई कभी परभाव न होगा ॥ दोहा महाअर्घ्य अर्पित करूं भव सागर का पोत ।
परम शुद्ध चिद्रूप ही शिव सुख सागर स्रोत ||
ॐ ह्रीं तृतीय अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय महाअर्घ्य नि. ।