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६५ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान सबके ही आकार प्रथक हैं यही जान हों ज्ञानालीन ।
सर्व मान्यतायें मिथ्या तज हो जायें हम ज्ञान प्रवीण || का प्रतिपादन किया है। इन शास्त्रों में यद्यपि अनेक पदार्थो का वर्णन किया है। तथापि वे सब हेय (त्यागने योग्य) कहें हैं और उपादेय (ग्रहण करने योग्य) शुद्धचिद्रूप को बतलाया
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१७. ॐ ह्रीं द्वादशाङ्गश्रुतविकल्परहिताखण्डबोधस्वरूपाय नमः ।
परिपूर्णज्ञानस्वरूपोऽहम् । श्री जिनवर ने द्वादशांग अरु बाह्य अंग का कथन कहा। उपादेय चिद्रूप शेष सब ही पदार्थ को हेय कहा ॥ हेय त्याग कर उपादेय को ग्रहण करो विवेक पूर्वक |
नित्य शुद्ध चिद्रूप तुम्हारा ध्याओ इसे ज्ञान पूर्वक ॥१७॥ ॐ ह्रीं द्वितीय अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।
(१८) शुद्धचिद्रूपसद्ध्यानाद् गुणाः सर्वे भवंति च ।
दोषाः सर्वे विनश्यंति शिवसौख्यं च संभवेत् ||१८|| अर्थ- शुद्धचिद्रूप का भले प्रकार ध्यान करने से समस्त गुणों की प्राप्ति होती है राग द्वेष आदि दोष नष्ट हो जाते है और निराकुलता रूप मोक्ष सुख मिलता है। १८. ॐ ह्रीं शिवसौख्यस्वरूपाय नमः ।
अनाकुलसुखस्वरूपोऽहम् । भली भांति चिद्रूप शुद्ध का ध्यान परम गुणधारी है । राग द्वेष सब क्षय करता है ये ही शिव सुखकारी है || परम शुद्ध चिद्रूप निर्विकारी भावों से हैं ओतः प्रोत ।
शान्ति सौख्य का सिन्धु यही है अनुभव रस का पावन स्रोत॥१८॥ ॐ ह्रीं द्वितीय अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।
(१९) चिद्रूपेण च घातिकर्महननाच्छुद्धेन धाम्ना स्थितम्, यस्मादत्र हि वीतरागवुषो नाम्नापि नुत्यादि च |