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श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान
है संसार अवस्था में जीवों का देह प्रमाणाकार । सिद्ध दशा में निराकार है पर है आत्म प्रदेशाकार ॥
१३. ॐ ह्रीं कर्मक्षयविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । अक्षयस्वरूपोऽहम् |
कर्म नाश करने में सक्षम एक शुद्ध चिद्रूप महान । इसका ही स्मरण करो यह स्वाध्याय निज अधिक प्रधान ॥ स्वाध्याय फल जब मिलता है तब चिद्रूप प्रकट होता । सांसारिक दुख का सागर भी पूरी तरह विघट होता ॥१३॥ ॐ ह्रीं द्वितीय अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।
(१४) उत्तमं स्मरण शुद्धचिद्रूपोऽहमिति स्मृतेः ।
कदापि क्वापि कस्यापि श्रुतं दृष्टं न केनचित् ||१४||
अर्थ- " मैं शुद्धचिद्रूप हूं" ऐसा स्मरण ही सर्वोत्तम स्मरण माना गया है। क्योंकि उससे उत्तम स्मरण कहीं भी किसी भी स्थान पर न हुआ न सुना और न देखा । १४. ॐ ह्रीं ब्रह्मधामस्वरूपाय नमः ।
निजबोधधामस्वरूपोऽहम् । छंद ताटंक
मैं ही हूँ चिद्रूप शुद्ध सर्वोत्तम यह स्मरण करो । इससे उत्तम नहीं स्मरण यह सदैव चिन्तवन करो || प्रतिपल प्रतिक्षण सतत अनवरत ध्याओ अब शुद्धात्म स्वरूप ।
यही शुद्ध चिद्रूप श्रेष्ठ है मंगलमयी महान अनूप ॥१४॥ ॐ ह्रीं द्वितीय अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।
(१५) शुद्धचिद्रूपसदृशं ध्येयं नैव कदाचन ।
उत्तमं क्वापि कस्यापि भूतमस्ति भविष्यति ||१५||
अर्थ- शुद्ध चिद्रूप के समान उत्तम और ध्येय ध्यान योग्य पदार्थ न कहीं हुआ, हैं न होगा इसलिये शुद्धचिद्रूप का ही ध्यान करना चाहिये ।