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३८५ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान
नाथ सर्व कल्याण मूल कारण आगम अभ्यास करो । फिर शुद्ध प्रयोजन भूत वस्तु निजका ही दृढ़ विश्वास करो ॥
ज्ञेय ज्ञान ज्ञायक संबंधों को जानें ये भली प्रकार । ज्ञेय ज्ञेय है ज्ञान ज्ञान है ज्ञायक तो है ही अविकार || तू है सिद्ध स्वयं में निज को सिद्ध रूप से थापित कर । सिद्ध स्वपद से ही संयुत हो अन्य याचना तू मत कर ॥ धर्म अर्थ अरु काम रूप भावों की ममता छोड़ अभी । निज स्वतत्त्व को पाने की ही शुद्ध भावना जोड़ अभी || सर्वज्ञों की श्रद्धा भी शुभ भाव बताते हैं जिनदेव केवल आत्म तत्त्व श्रद्धा ही परम शुद्ध कहते जिनदेव || तन बाणी मन दया दान व्यवहार आदि परिणाम सभी । ये पुदगल के कार्य आत्मा इनका कर्त्ता नहीं कभी || निर्विकल्प विज्ञान ज्ञानघन आत्मा परद्रव्यों से भिन्न । दर्शन ज्ञान स्वरूप आत्मा निज स्वद्रव्य से सदा अभिन्न || एकमात्र चिद्रूप शुद्ध का ही आश्रय है करने योग्य । परभावों पर द्रव्यों का तो आश्रय करना सदा अयोग्य ॥ समता रूपी कुलदेवी की परम अनुग्रह कृपा मिले । साम्य भावी रूपी समरस ही निजॉ अंतर में सतत झिले ॥ ॐ ह्रीं तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय महाजयमाला पूर्णार्घ्यं नि. । आशीर्वाद वीरछंद
प्रथम श्री अरहंत परम गुरु तथा अमर गुरु गणधर आदि । इनका ही उपदेश ग्रहण कर क्षय कर लूँ सव वाद विवाद ॥ कभी न अटकूँ परभावों में राग द्वेष से रहूँ सुदूर । निज स्वभाव के भीतर जाऊँकर्म स्वयं होगें चकचूर ॥ एक शुद्ध चिद्रूप ज्ञान मैं धारूँ बन ज्ञायक अविकार । इसीयुक्ति से मिल जाए प्रभु निमिष मात्र में भव का पार ॥