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३७५ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान
मोक्षमार्ग में चलते जाना नहीं अटकना तू क्षण भर । राग द्वेष के भाव न आने देना अतंर में कण भर ||
२४. ॐ ह्रीं ग्रन्थसंख्याविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । निर्ग्रन्थोऽहम् | विधाता
ग्रंथ. श्लोक संख्या पांच सौ छत्तीस है जानो ।. मगर अब तीन सौ सत्तानवे श्लोक हैं मानो ॥ शेष श्लोक काल के गर्त्त में जा कर समाए हैं । मगर जो हैं वे पूरे हैं भाग्य से हमने पाए हैं || शुद्ध चिद्रूप का चिन्तन शुद्ध चिद्रूप का मन्थन । शुद्ध चिद्रूप है सक्षम नाशता कर्म के बंधन ॥ ज्ञान भूषण नमन तुमको किया पुरुषार्थ हे मुनिवर । ज्ञान धारा हमें दे दी शुद्ध चिद्रूप युत सत्वर ॥ किया है यह विधान हमने शान्ति पाने को हे स्वामी । शुद्ध चिद्रूप का बल पा बनें हम आत्म विश्रामी ॥ भूल इसमें अगर हो तो क्षमा करना हमें मुनिवर । भेद विज्ञान ही देना मिले सम्यक् स्वपथ सुखकर ॥ शुद्ध चिद्रूप के स्वामी जगत के जीव सारे हैं ।
मगर अज्ञान के कारण ह्रदय मिथ्यात्व धारे हैं ॥२४॥ ॐ ह्रीं भट्टारकज्ञानभूषणविरचिततत्त्वज्ञान तरंगणियां शुद्धचिद्रूपप्राप्तिक्रम प्रतिपादकाष्टादशाध्याये परमानन्दस्वरूपाय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
महा अर्घ्यं
गजल
करता है ॥
कोई भी कर्म नहीं कर्म बंध करता है । अपनी ही भूल से ये जीव बंध कर्म को देना दोष यह पुरानी खोटी आदत को समझदार जीव
आदत है हरता है ॥