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३७२ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी अष्टादशम अध्याय पूजन निःशंकित वात्सल्य आदि ये सम्यक् दर्शन के है अंग । भोगों की आकांक्षा है तो सम्यक दर्शन होगा भंग ||
ॐ ह्रीं अष्टादशम अध्याय समन्वित श्री तत्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।
(२०)
न लाभमानकीर्त्यर्था कृता कृतिरिंय मया ।
किंतु मे शुद्धचिद्रूपे प्रीतिः सैवात्र कारणम् ॥२०॥
अर्थ- अनत में ग्रन्थकार ग्रन्थ के निर्माण का कारण बतलाते हैं, कि यह जो मैंने ग्रन्थ बनाया है। वह किसी प्रार के लाभ मान व कीर्ति की इच्छा से नहीं बनाया । परंच शुद्ध चिद्रूप में मेरा गाढ़ा प्रेम है। इसी कारण इसका निर्माम किया है । २०. ॐ ह्रीं लाभमानकीर्त्यादिरहितशुद्धचिद्रूपाय नमः |
अलोभज्ञानरूपोऽहम् । विधाता
लाभ अरु मान वश मैंने ग्रंथ रचना नहीं की है । कीर्ति की इच्छा से भी तो ग्रंथ रचना नहीं की है || शुद्ध चिद्रूप से है प्रेम मेरा गाढ़ अंतर से । अतः इस ग्रंथ की रचना रची मैंने निजंतर से ॥ शुद्ध चिद्रूप की महिमा का इसमें पूरा वर्णन है । शुद्ध चिद्रूप के खंडन है || शुद्ध चिद्रूप के
विपरीत जो है उसका
स्वामी जगत के जीव सारे हैं ।
मगर अज्ञान के कारण ह्रदय मिथ्यात्व धारे हैं ॥२०॥
ॐ ह्रीं अष्टादशम अध्याय समन्वित श्री तत्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।
(२१) जातः श्रीसकलादिकीर्तिमुनिपः श्रीमूलसंधेऽग्रणीस्तत्पद्योदयपर्वते रविरभूद्भव्यांबुजानंदकृत् । विख्यातो भुवनादिकीर्तिस्थ यस्तत्पादकंजे रतः, तत्त्वज्ञानतरङ्गिणीं स कृतवानेतां हि चिद्भूषण् ||२१|| अर्थ- मूल संघ के आचार्यो में अग्रणी सर्वोत्तम विद्वान आचार्य सकलकीर्ति हुए । उनके
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