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३६९ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान
वैय्यावृत्ति धर्म श्रावक का मुनि जन की सेवा करना । दुखिया मुनियों की पीड़ा को विनय सहित तत्क्षण हरना ॥
शुद्ध चिद्रूप के ध्याता कर्म क्षय त्वरित करते हैं । शिखर लोकाग्र राजित हो सिद्ध पद पूर्ण वरते हैं || शुद्ध चिद्रूप का आकाश शिव सुख रस का ही है स्रोत । इसी में लीन होता जो सौख्य से होता ओत प्रोत ॥ शुद्ध चिद्रूप के स्वामी जगत के जीव सारे हैं ।
मगर अज्ञान के कारण ह्रदय मिथ्यात्व धारे हैं ॥१५॥ ॐ ह्रीं अष्टादशम अध्याय समन्वित श्री तत्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्यं नि. ।
(१६) साक्षाच्च शुद्धचिद्रूपा भूत्वात्यंतनिराकुलाः । तिष्ठन्त्यनन्तकालं ते गुणाष्टकसमन्वित्ताः ॥१६॥
अर्थ- तथा वहां पर साक्षात् शुद्धचिद्रूप होकर अत्यन्त निराकुल और केवदर्शन केवलज्ञान अव्यावाध सुख आदि आठों गुणों से भूषित हो अनंत काल पर्यंत निवास करते हैं ।
१६. ॐ ह्रीं सिद्धपर्यायविकल्परहितशुद्धचिद्रपाय नमः |
स्वभावसिद्धालयोऽहम् । विधाता
वहाँ सम्मान होता है शुद्ध चिद्रूप से पूरा । निराकुल ज्ञान दर्शन सुख वीर्य गुण है प्रचुर पूरा ॥ अष्ट गुण भूषित होता है अनंतों गुण का बन स्वामी । अनंतानंत कालों तक सिद्ध पति आत्म विश्रामी ॥ शुद्ध चिद्रूप का यह फल हमें भी प्राप्त हो स्वामी । जगे पुरुषार्थ शिवसुख का ह्रदय में ऊर्जा नामी ॥ शुद्ध चिद्रूप के स्वामी जगत के जीव सारे हैं । मगर अज्ञान के कारण ह्रदय मिथ्यात्व धारे हैं ॥१६॥ ॐ ह्रीं अष्टादशम अध्याय समन्वित श्री तत्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्यं नि. ।