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३६६ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी अष्टादशम अध्याय पूजन परम परिणामिक स्वभाव ही एक मात्र है आश्रय योग्य । शेष भाव चारों ही . पूरे पूरे हैं सम्पूर्ण अयोग्य ॥ शुद्ध चिद्रूप के स्वामी जगत के जीव सारे हैं ।
मगर अज्ञान के कारण ह्रदय मिथ्यात्व धारे हैं ॥१०॥ ॐ ह्रीं अष्टादशम अध्याय समन्वित श्री तत्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।
. (११) मिथ्यात्वेऽविरते मृत्या जीवा यान्ति चतुर्गतीः ।
सासादने विना श्वभ्रं तिर्यगादिगतित्रयम् ||११|| अर्थ- जो जीव मिथ्यात्व और अविरत सम्यग्दृष्टि (जिसने सम्यत्व होने के पहिले आयुबंध कर लिया हो) गुणस्थानों में मरते हैं, वे मनुन्य तिर्यंच देव नारक चारों गतियों में जन्म लेते हैं। और सासाधन गुणस्थान में मरनेवाले नरकगति में न जाकर शेष तिर्यंच आद तीनों गतियों में जाते हैं। ११. ॐ ह्रीं मरणयुक्तमिथ्यात्वादिगुणस्थानविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः ।
अमृतचैतन्यस्वरूपोऽहम् ।।
विधाता प्रथम चौथे में जो मरते चतुर्गतियों में जाते हैं । मरण सासादन में यदि हो तो नहीं नरकों में जाते हैं | आयु का पूर्व में हो बंध समकित प्राप्ति के पहिले । वही नरकों में जाते हैं अन्य तो सुगति ही पते ॥ शुद्ध चिद्रूप पाने को क्रमिक धीरज सहित चलना । सुविधि पूर्वक निजंतर में ध्यान से कर्म वसु छलना ॥ शुद्ध चिद्रूप के स्वामी जगत के जीव सारे हैं ।
मगर अज्ञान के कारण ह्रदय मिथ्यात्व धारे हैं ॥११॥ ॐ ह्रीं अष्टादशम अध्याय समन्वित श्री तत्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।
(१२) अयोगे मरणं कृत्वा भव्या यान्ति शिवालयम् । मृत्वा देवगतिं यान्ति शेषेषु सप्तसु ध्रुवम् ||१२||