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श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी अष्टादशम अध्याय पूजन भाव बंध के निमित्त से ही द्रव्य बंध होता तत्काल । द्रव्य बंध के निमित्त से ही बढ़ता है संसार विशाल || शुद्ध चिद्रूप के स्वामी जगत के जीव सारे हैं ।
मगर अज्ञान के कारण ह्रदय मिथ्यात्व धारे हैं ॥७॥ ॐ ह्रीं अष्टादशम अध्याय समन्वित श्री तत्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।
भावान्मुक्तो बवेच्छुद्धचिद्रुपोहमिति स्मृतेः ।
यद्यात्मा क्रम तो द्रव्यात्स कथं न विधीयते ॥८॥ अर्थ- यह ात्मा "मैं शुद्धचिद्रूप हूं" ऐसा स्मरण करते ही जब भावमुक्त हो जाता है। तब वह क्रम से द्रव्यमुक्त तो अवश्य ही होगा। ८. ॐ ह्रीं भावद्रव्यमुक्तत्वविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः ।
आत्मरत्नोऽहम् ।
विधाता शुद्ध चिद्रूप का कर ध्यान भाव से मुक्त हो जाता । क्रमिक पुरुषार्थ बल से फिर द्रव्य से मुक्त हो जाता ॥ शुद्ध चिद्रूप का ही ध्यान सर्वोत्तम सुखो का घर । यही अरहंत पद दाता सिद्ध पद देता है सत्वर || शुद्ध चिद्रूप की छाया जगत में श्रेष्ठ- सर्वोत्तम । स्मरण मात्र से शिव सुख प्रदाता पूएः परमोत्तम ॥ शुद्ध चिद्रूप का ही ध्यान परमोत्तम ज्ञान का घर । शुद्ध चिट्रप का ही ज्ञान सर्वोत्तम सुखो का घर || शुद्ध चिद्रूप के स्वामी जगत के जीव सारे हैं ।
मगर अज्ञान के कारण ह्रदय मिथ्यात्व धारे हैं ॥८॥ ॐ ह्रीं अष्टादशम अध्याय समन्वित श्री तत्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्यं नि ।
क्षणे क्षणे विमुच्येत शुद्धचिद्रूपचिंतया । तदन्यचितया नूनं वध्येतैव त संशयः ॥९॥