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३४२ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी सप्तदशम अध्याय पूजन सोने के प्याले में मैंने मोह महामद पिया सदा । मोह जन्य मोहिनी जाल में निज को भूला किया सदा ||
(३) वैराग्यं त्रिविधं निधाय ह्रदये, हित्वा च संग् त्रिधा, श्रित्वा सदगुरुमागमं च विमलं, धृत्वा च रत्नत्रयम् । त्यक्त्वान्यैः : सह संगतिं च सकलं रागादिकं स्थान के, स्थातव्यं निरुपद्रवेऽपि विजने स्वात्मोत्थसौख्याप्तये ॥३॥ अर्थ- जो पुरुष आत्मीय शांतिमय सुख के अभिलाषी है, उस सुख को हस्तगत करना चाहते हैं। उन्हें चाहिये कि वे संसार शरीर और भोगों का त्यागरूप तीन प्रकार का वैराग्य धारण कर चेतन अचेतन और मिश्र तीनों प्रकार का परिग्रह छोड़कर निर्द्रन्थ गुरु निर्दोष शास्त्र और सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्र स्वरूप रत्नत्रय का आश्रय कर दूसरे जीवों का सहवास और रागद्वेष आदि का सर्वथा त्याग कर सब उपद्रवों से रहित एकांत स्थान में निवास करें।
३. ॐ ह्रीं संसारशरीरभोगविषयकवैराग्यविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । निरुपद्रवज्ञानानन्दस्वरूपोऽहम् ।
जो आत्मिक सुख अभिलाषी हों वे निज को ही ध्याएं | संसार शरीर भोग को त्यागें वैराग्य सजाएं ॥ अब मिश्र अचेतन चेतन तीनों ही तजें परिग्रह । सदगुरु निर्दोष शास्त्र सुन पर से हो जाएं निस्पृह || रत्नत्रय का आश्रय लें सत संगति करें ज्ञानमय । एकान्तावास हो निर्भय हो जाएं आत्म ध्यान मय ॥ चिद्रूप शुद्ध की धारा अन्तर्मन पुलकित करती ।
भव भव की कर्म वेदना अर्न्तमुहूर्त में हरती ॥३॥ ॐ ह्रीं सप्तदशम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि.
(४)
खसुखं न सुखं नृणां किंत्वभिलाषाग्निवेदनाप्रतीकारः । सुखमेव स्थितिरात्मनि निराकुलत्वाद्विशुद्धपरिणामात् ॥४॥