________________
३४० श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी सप्तदशम अध्याय पूजन
अवलंबन पर का न कभी है सतत स्वावलंबन है पास । अपने निज बल के द्वारा ही पा लेता है मुक्ति निवास ॥
अर्ध्याव
सप्तदशम अध्याय
(9) मुक्ताविद्रुमरत्नधातुरसभूवस्त्रान्नरुग्भूरुहांस्त्रीभावश्वाहिगवां नृदेवविदुषां पक्षाम्बुगानामपि । प्रायः संति परीक्षका भुवि सुखस्यात्यल्पका हा यतो, दृश्यन्ते खभवे रताश्च बहवः सौख्ये च नातींद्रिये ||१|| अर्थ- संसार में मोती, मूङ्गा रत्न धातु रस पृथ्वी वस्त्र अन्न रोग वृक्ष स्त्री हाथी, घोड़े, सर्प गाय, मनुष्य, देव विदान पक्षी और जलचर जीवों की परीक्षा करनेवाले अनेक मनुष्य हैं परन्तु सुख की परीक्षा करनेवाले बहुत थोड़े हैं, क्योकि इन्द्रियों से उत्पन्न हुए ऐन्द्रियिक सुख में तो बहुत से अनुरक्त हैं। परन्तु निराकुलतामय अतीन्द्रिय सुख में अनुराग करने वाले नहीं है ।
१. ॐ ह्रीं ऐन्द्रियकसुखरतिविषयकपरीक्षाविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः | ज्ञानमुक्तासौख्यस्वरूपोऽहम् ।
छंद मानव
मोती मूंगा रत्नादिक पृथ्वी गज अश्व पारखी । सुर मनुज आदि द्रव्यों के तो होचत बहुत पारखी ॥ इन्द्रय सुख के अनुरक्ती है बहुत मनुज धरती पर । पर शुद्ध निराकुल सुख के पारखी अल्प पृथ्वी पर ॥ शाश्वत शिव सुख अनुरागी तो यहां बहुत थोडे हैं । चिद्रूप शुद्ध के प्रेमी भीबहुत नहीं थोड़े हैं ॥ चिद्रूप शुद्ध की रुचि ही मिथ्यत्व दोष रहती है । ज्यों ज्यों संवर्धन होता त्यों त्यों जलती रहती है ॥१॥
ॐ ह्रीं सप्तदशम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्यं नि. ।