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३३१ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान
निष्कषाय शुद्धात्म तत्त्व से चार कषायें है प्रतिशकूल । व्रत स्वरूप शुद्धात्म तत्त्व के अविरति भी न रंच अनुकूल ॥
स्थान निर्जन सुख प्रदाता ध्यान का कारण महान । राग द्वेष अरु मोह क्षय में श्रेष्ठ है यह है प्रधान ॥ उसी का ही मुक्ति प्रेमी सदा करते आश्रय । शुद्ध निज चिद्रूप भज कर प्राप्त करते शिव निलय ॥ शुद्ध निज चिद्रूप का आनंद ही सिर मौर है । तीन लोक त्रिकाल में यह ज्ञान मंदिर और है ॥१५॥ ॐ ह्रीं षोडशम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।
(१६)
सुधाया लक्षणंलोका वदन्ति बहुधा मुधा ।
वाधााजंतुजनैर्मुक्तं स्थानमेव सतां सुधा ॥१६॥
अर्थ- लोक सुधा (अमृत) का लक्षण भिन्न ही प्रकार से बतलाते हैं। परन्तु वह ठीक नहीं, मिथ्या है। क्योंकि जहां पर किसी प्रकार की बाधा डांस मच्छर आदि जीव और जनसमुदाय न हो, ऐसे एकांत स्थान का नाम ही वास्तव में सुधा है ।
१६. ॐ ह्रीं बाधाजन्तुजनादिमुक्तस्थानविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । अव्याबाधचिन्निवासोऽहम् ।
भिन्न लक्षण सुधा को जग में कहा वह झूठ है । जहाँ बाधा होन कोई वह सुधा सुअनूप है ॥ एकान्त का ही नाम वास्तव में सुधा है जान लो । बनो एकाकी स्वयं एकत्व निज पहचान लो ॥ शुद्ध निज चिद्रूप का आनंद ही सिर मौर है । तीन लोक त्रिकाल में यह ज्ञान मंदिर और है ॥१६॥ ॐ ह्रीं षोडशम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्यं नि. ।
(१७) भूमिगृहे समुद्रादितटे पितृवने वने ।
गुहादौ वसति प्राज्ञः शुद्धचिद्ध्यानसिद्धये ॥१७॥