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२९६ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी चतुर्दशम अध्याय पूजन आश्चर्य तो इस धरती पर हमने सुना मात्र इकला । चक्रवर्ती निज वैभव भूला राज्य बढ़ाने को निकला | शुद्ध चिद्रूप के यथार्थ में जो ज्ञानी हैं । कर्म वश रहते सतत फिर भी शुद्ध ध्यानी है | शुद्ध चिद्रूप का चिन्तन ही श्रेष्ठ है प्रतिक्षण ।
शुद्ध चिद्रूप से कटते हैं कर्म के बंधन ॥२१॥ ॐ ह्रीं चतुर्दशम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनाागमाय अर्घ्य नि.
(२२) भोजनं क्रोधलोभादि कुर्वन कर्मवशात् सुधीः ।
न मुञ्चति क्षणार्द्ध स्वशुद्धचिद्रूपचिन्तनम् ॥२२॥ २२. ॐ ह्रीं भोजनक्रोधलोभादिरहितशुद्धचिद्रूपाय नमः ।
निर्लोभस्वरूपोऽहम् । शुद्ध चिद्रूप से विचलित न कभी होते हैं । धोर प्रतिकूलता हो चलित नहीं होते हैं | शुद्ध चिद्रूप का ही चिन्तवन करते रहते । पूर्ण आनंद सरोवर में ही बहते रहते ॥ शुद्ध चिद्रूप का चिन्तन ही श्रेष्ठ है प्रतिक्षण ।
शुद्ध चिद्रूप से कटते हैं कर्म के बंधन ॥२२॥ ॐ ह्रीं भट्टारकज्ञानभूषणविरचित तत्त्वज्ञानतरंगिण्यां शुद्धचिद्रूप स्मरन्नन्यकार्यकरोतीति प्रतिपादक चतुर्दशाध्याये सहजानन्दस्वरूपाय पूर्णाऱ्या निर्वपामीति स्वाहा ।
महाअर्ध्य
_छंद हे दीन बंधु सक्षम नहीं है आत्मा परभाव के लिए । सक्षम है अपनी आत्मा निज भाव के लिए | पर का न कुछ भी कर सकी है आज तक कभी । दुश्मन रही है यह सदा विभाव के लिए |