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२८१ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान अव तक व्यवहार नीर का न किया है सेवन । फसल भी लहलहाई सर्वदा बन दुख का घन ॥ मैं ज्ञान भावना चंदन लाऊँ नामी । भव ज्वर का नाश करूं हे अततन्नामी ||
चिद्रूप शुद्ध की महिमा उर में जागे ।
मिथ्यात्व मोह की परिणति तत्क्षण भागे || ॐ ह्रीं चतुर्दशम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय संसारताप विनाशनाय चंदनं नि. ।
मैं ज्ञान भावना अक्षत लाऊं उज्ज्वल । अक्षय पद प्राप्त करूं अपना परमोज्ज्वल ॥
चिद्रूप शुद्ध की महिमा उर में जागे ।
मिथ्यात्व मोह की परिणति तत्क्षण भागे ॥ ॐ ह्रीं चतुर्दशम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अक्षय पद प्राप्ताय अक्षतं नि. । .
मैं ज्ञान भावना पुष्प सुरभि प्रभु पाऊँ । कामाग्नि नाश निष्काम स्वपद प्रगटाऊं ||
चिद्रूप शुद्ध की महिमा उर में जागे ।
मिथ्यात्व मोह की परिणति तत्क्षण भागे ॥ ॐ ह्रीं चतुर्दशम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय कामबाण विनाशनाय पुष्पं नि. ।
मैं ज्ञान भावना सुचरु अनुभवी लाऊं । चिर क्षुधारोग हर तृप्ति पूर्ण प्रभु पाऊं ॥
- चिद्रूप शुद्ध की महिमा उर में जागे ।
मिथ्यात्व मोह की परिणति तत्क्षण भागे || ॐ ह्रीं चतुर्दशम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय क्षुधारोग विनाशनाय नैवेद्यं नि. ।