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२७९ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान । राग की आग में जलते ही रहे हैं अब तक । मोह की छाँह में पलते ही रहे हैं अब तक ॥ स्वपर विवेक तत्त्व ज्ञान स्वतः होता है । तत्त्व के ज्ञान बिन निज भावन नहीं होता है | शुद्ध सम्यक्त्व ही निज धर्म मूल है मानो । बिना सम्यक्त्व के निर्वाण नहीं होता है |
... छंद गीत उर में स्वभाव भाव का जलता हुआ दिया । देखा तो आत्मा के साथ मैं भी चल दिया ॥ तम का न ही नाम था जगमग थी दिवाली । अतएव आत्मा का ध्यान भी अचल किया ॥ श्रेणी क्षपक स्वभावा से चढ़न का किया श्रम । अरहंत पद को प्राप्त ममल अरु विमल किया | सर्वज्ञ दंशा प्राप्ति कर रस पीता निजानंद । सिद्धों का पद भी लूंगा मैं निश्चय अचल किया | आनंद अतीन्द्रिय का ही अब साम्राज्य है । अपने स्वभाव भाव को प्रतिपल सरल किया | शुद्धात्मा की भक्ति पूर्ण प्रगट हो गई ।
अनुभव स्वरस का अंजुली भर भर के जल पिया || ॐ ह्रीं त्रयोदशम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय जयमाला पूर्णाऱ्या
नि. ।
आशीर्वाद
प्राप्ति शुद्ध चिद्रूप की सदा सदा स्व सहाय । ....... आत्माश्रय की प्राप्ति ही परमोत्कृष्ट उपाय ||
इत्याशीर्वाद: