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२५९ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान
शत इन्द्रों से वन्दित होगा त्रिभुवन में होगी जयकार | फिर अघातिया भी क्षय होंगे शिवसुख होगा अपरंपार ॥
कोई जीवित नहीं रहा है एक दिवस फिर मर जाओगे । निन्दा के ही पात्र बनोगे फिर न पुनः नर तन पाओगे || अतः सँभल जाओ मेरे मन अवसर बीत रहा है पल पल । सत्संगति पा अब तो सँभलो अपना मुख कर लो तुम उज्ज्वल ॥ अब तो अपनी ओर निहारो निज स्वरूप को ही तुम निरखो। सत्यम् शिम् सुन्दरम् तुम हो चाहे जैसे निज को परखो॥ सदाचार की दिव्य शक्ति ले करो आचरण शिव सुखदायी । भव पीड़ा क्षय हो जाएगी राग नहीं होगा दुखदायी || पर की पीड़ा से व्याकुलहो पर की पीड़ा शीघ्र हरो तुम । यशोध्वजा अपनी लहराओ ऐसा ही कुछ काम करो तुम ॥ महापुरुष जितने भी होते वे सब सत् पथ पर चलते हैं। हिंसा झूठ शील परिग्रह पाप नहीं उनको छलते हैं ॥ परम धाम तुमको पाना है तो ध्रुव धामी अभी बनो तुम। पर भावों से पर द्रव्यों से निर्मोही बन अभी तनो तुम || इतना ही करना है तुमको शेष स्वयं सब हो जाएगा । शाश्वत अचल स्वभाव तुम्हारा पल भर में शिव हो जाएगा || मोह चक्र को जीतोगे तुम ज्ञान चक्र निश्चित पाओगे । परम अहिंसा सात्य धर्म की यशो ध्वजा तुम लहराओगे॥ एक मात्र चिद्रूप शुद्ध का अवलंबन ही परमोत्तम है । तत्त्वज्ञान की तरंग हो तो निज चेतन ही लोकत्तम है |
ॐ ह्रीं द्वादशम अधिकार समन्ति श्री तत्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय जयमाला पूर्णार्घ्यं
नि. ।
आशीर्वाद
परम शुद्ध चिद्रूप में शाश्वत स्वगुण अनंत । शाश्वत सुख आधार ही पाता जीव भवंत H
इत्याशीर्वाद :