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२२९ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान करो आत्मा का आराधन अगर शान्ति सुख पाना है । पर का आराधन यदि है तो निश्चित भव दुख पाना है ||
अतः निज चिद्रूप ध्याता एक विरला जानिये । वही सर्वोत्तम सुखों का हितेच्छुक है मानिये ॥३॥ ॐ ह्रीं एकादशम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्यं नि. ।
(४)
सुरुषबललावण्यधनापत्यगुणान्विताः ।
गांभीर्यधैर्यधौरेयाः सन्त्यसंख्यो न चिद्रताः ||४||
अर्थ- उत्तम रूप, बल, लावण्य, संतान और गुणों से भूषित भी बहुत से मनुष्य हैं। गंभीर धीर और वीर भी अशसख्य हैं। परन्तु शुद्धचिद्रूप की प्राप्ति में लीन बहुत ही कम मनुष्य हैं ।
४. ॐ ह्रीं बललावण्यादिरहितशुद्धचिद्रूपाय नमः ।
ज्ञानलावण्यरूपोऽहं |
रूप बल लावण्य धन संतान गुण भूषित बहुत लीन निज चिद्रूप में ऐसे मनुज ह अल्प मित ॥ अतः निज चिद्रूप ध्याता एक विरला जानिये । वही सर्वोत्तम सुखों का हितेच्छुक है मानिये ॥४॥ ॐ ह्रीं एकादशम आधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्यं नि. ।
(५)
जलद्यूतवनस्त्रीवियुद्धगोलकगीतिषु ।
क्रीडन्तोऽत्र विलोक्यन्ते घनाः कोऽपि चिदात्मनि ॥५॥
अर्थ- अनेक मुष्य जलक्रीड़ा जूआ वनविहार स्त्रियों के विलास पक्षियों के युद्ध, गोलीमार, क्रीड़ा और गायन आदि में भी दत्तचित्त दिखाई देते हैं। परन्तु चिदात्मा में विहार करनेवाला कोई विरला ही दीखता है ।
५. ॐ ह्रीं जलद्यूतवनादिक्रीड़ारहितशुद्धचिद्रूपाय नमः ।
ज्ञानजलक्रीडास्वरूपोऽहं ।