SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 236
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२७ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान अन्तर्मन में धुकधुक है तो आत्म ध्यान होगा कैसे । संशय युत अज्ञान पास तो आत्म ज्ञान होगा कैसे ॥ - १. ॐ ह्रीं नुतिनत्यादिविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । परमानन्दनिलयस्वरूपोऽहं । ताटंक यदपि विश्व में शान्त चित्त विद्वान यम नियम घारि बहुत । बलशाली धनवान चरित्री उत्तम वक्ता पुरुष बहुत ॥ शीलवान तपवान विवेकी चतुर गुणी भी जीव बहुत । मौनी श्रोता इन्द्रिय विजयी व्यसन मुक्त भी मनुज बहुत ॥ उपसर्गो में धीर वीर अपरिग्रहधारी कला प्रधान 1 नाना भांति मनुष्य असंख्यों मिलते हैं कर लो पहचान ॥ किन्तु शुद्ध चिद्रूप ध्यान अनुरक्त विरल कोई होता । उस विरले मनुष्य को वन्दन जो चिद्रूप लीन होता ॥१॥ ॐ ह्रीं एकादशम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. । (२) ये चैत्यालयचैत्यदानमहसयात्राकृतौ कौशलानानाशस्त्रविदः परीषहसहा रक्ताः परोपकृतौ । निःसंगाश्च तपस्विनोपि वहवस्ते संति ते दुर्लभाः रागद्वेषविमोहवर्जनपराश्चित्तत्वलीनाश्च ये ॥२॥ अर्थ- संसार में अनेक मनुष्य जिन मन्दिरों का निर्माण प्रतिमाओं का दान उत्सव और तीर्थो की यात्राएं करने में प्रवीण हैं। नाना शास्त्र के जानकार परीषहों के सहन करनेवाले, परोपकार में रत, समस्त प्रकार के परिग्रहों से रहित और तपस्वी भी हैं। परन्तु राग द्वेष और मोह के सर्वथा नाश करने वाले एवं शुद्धचिद्रूप रूपी तत्त्व में लीन बहुत ही थोड़े हैं । २. ॐ ह्रीं चैत्यालयचैतत्यदानादिवकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । अकृत्रिमचिद्रूपोऽहं
SR No.007196
Book TitleTattvagyan Tarangini Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherTaradevi Pavaiya Granthmala
Publication Year1997
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy