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________________ २१५ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान है चैतन्य दीप्ति ज्योतिर्मय विभ्रम तम कर देती नष्ट । फिर न कभी भी दे पाता है मोह शत्रु भी कोई कष्ट || स्त्री- पुत्रादिक के चिन्तन से होता . है बंध । ये मेरे हैं नहीं इसी चिन्तन से रंच न बंध ॥ मम मेरा मम के विचार ही बंध कराते हैं । मम न यही तीन अक्षर तो कर्म मिटाते हैं | जो चिद्रूप शुद्ध का ध्याता वह सुख पाता है । जो चिद्रूप शुद्ध ना ध्याता वह दुख पाता है ॥१३॥ ॐ ह्रीं दशम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. । (१४) निर्ममत्वं परं तत्त्वं ध्यानं चापि व्रतं सुखम् । शीलं खरोधनं सत्मानिर्ममत्वं विचिंतयेत् ॥१४ अर्थ- यह निर्ममत्व सर्वोत्तम तत्व है। परम ध्यान परमव्रत परम सुख और परम शील हैं। इससे इन्द्रियों के विषयों का निरोध होता है। इसलिये उत्तम पुरुषों को चाहिये कि वे इस शुद्धचिद्रूप का ही ध्यान करें । १४. ॐ ह्रीं व्रतध्यानादिविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । ज्ञानशीलस्वरूपोऽहम् । वीरछंद उत्तम पुरुष शुद्ध चिद्रूप ध्यान का करते सदा उपाय । इसी ध्यान में लय हो करके पाते शाश्वत पद सुखदाय॥ निर्ममत्व सर्वोच्च तत्त्व है परम ध्यान सुखवत मय शील। इन्द्रिय विषयों का निरोध होता अनंत गुण की यह झील|| जो चिद्रूप शुद्ध की महिमा जान उसे ही ध्याता है । पर ममत्व को क्षय करता है महा मोक्ष पद पाता है |॥१४॥ ॐ ह्रीं दशम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।
SR No.007196
Book TitleTattvagyan Tarangini Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherTaradevi Pavaiya Granthmala
Publication Year1997
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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