________________
१९४ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी नवम अध्याय पूजन आत्म तत्त्व को ध्येय बनाकर आत्मोपलब्धि प्राप्त कर ले। महामोक्ष अभिलाषी बनकर सिद्धालय प्रवेश कर ले || चिद् प शुद्ध ही शिव सूखकारी पाऊ ।
आनंद अतीन्द्रिय धारा ह्रदय सजाऊं ॥१०॥ ॐ ह्रीं नवम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागममाय अर्घ्य नि. ।
(११) न बद्धः परमार्थेन बद्धो मोहवशाद् गृही ।
शुकवद् भीमपाशेनाथवा मर्कटमुष्टिवत् ॥११॥ अर्थ- भय कराने वाले पाश के समान, अथवा बंदर की मुट्ठी के समान यद्यपि यह जीव वास्तविक दृष्टि कर्मो से संबद्ध नहीं है तथापि मोह से बंधा ही हुआ है । ११. ॐ ह्रीं मोहबन्धनरहितशुद्धचिद्रूपाय नमः ।
निर्बन्धोऽहम् । जैसे शुक नलिनी नहीं छोड़ता भय से । बन्दर मुट्ठी निज नहीं खोलता भय से ॥ शुक अपनी सुध बुध भूल लटकता रहता । घटने पकड़ा है बंदर यही समझता ॥ चेतन को कर्मो ने न कभी पकड़ा है । यह मोह भाव के कारण खुद जकड़ा है ॥ चिदू प शुद्ध ही शिव सुखकारी पाऊं ।
आनंद अतीन्द्रिय धारा ह्रदय सजाऊं ॥११॥ ॐ ह्रीं नवम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागममाय अर्घ्य नि. ।
(१२) श्रद्धानां पुस्ताकनां जिनभवनमठांतेनिवासादिकानां कोरक्षार्थकानां भुवि झटिति जनो रक्षणे व्यग्रचित्तः । यस्तस्य वात्मचिंता क्व च विशदमतिः शुद्धचिद्रूपकाप्तिः क्व स्यात्सौख्यं निजोत्थं क्व च मनसि विचिंत्येति कुर्वतु यत्नम् ||१२||
|