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श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी नवम अध्याय पूजन कल्पवासि देवों के सुख भी तृण समान हैं तुच्छ सदैव । जो पर में सुख माना रहे है वे सुख पाते नहीं कदैव ॥ इसने आदर उसने अपमान किया है । इसने यश उसने अपयश आदि किया है ॥ ऐसा विचार मन में लाना यह मोह दुष्ट ही लाता है बीमारी ॥ चिद्रूप शुद्ध ही शिव सुखकारी पाऊं । आनंद अतीन्द्रिय धारा ह्रदय सजाऊं ॥२॥
दुखकारी ।
ॐ ह्रीं नवम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागममाय अर्घ्य नि. ।
(३)
किं करोमि क्व यामीदं क लभेयं सुखं कुतः । किंमाश्रयामि किं वच्मि मोहनिश्चितनमीदृशम् ॥३॥
अर्थ- मैं क्यों करूं? कहां जाऊँ? कैसे सुखी होऊं ? किसका सहारा लूं? और क्या कहूं? इस प्रकार विचार करना भी मोह है। निर्मोही वीतराग ऐसे विचार को सर्वथा मिथ्या मान कभी ऐसा विचार नहीं करते ।
३. ॐ ह्रीं मोहचिंतनरहितशुद्धचिद्रूपाय नमः ।
निर्मदस्वरूपोऽहम् |
क्या करूं कहाँ जाऊँ कैसे सुख पाऊँ क्या करूं सहारा किसका लूँ सुख पाऊं ॥ ऐसा विचार करना भी मोह प्रबल है चिद्रूप शुद्ध में बाधक बहुत सबल है चिद्रूप शुद्ध ही शिव सुखकारी पाऊ आनंद अतीन्द्रिय धारा ह्रदय सजाऊं ॥३॥ ॐ ह्रीं नवम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागममाय अर्घ्यं नि. ।
(४) चेतनाचेतने रागो द्वेषो मिथ्यामतिर्मम |
मोहरूपमिदं सर्व चिद्रूपोऽहं हि केवलः ॥४॥